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घरेलू स्त्री / ममता व्यास
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18:01, 3 जून 2015
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर
कढाई
कड़ाही
में कभी हलवा नहीं जला...
जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
और तुम कहते हो
उस
घरेलु
घरेलू
स्त्री को कविता की समझ नहीं!
</poem>
Sharda suman
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