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और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर
कढाई कड़ाही में कभी हलवा नहीं जला...
जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
और तुम कहते हो
उस घरेलु घरेलू स्त्री को कविता की समझ नहीं!
</poem>
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