{{KKRachna
|रचनाकार=रहीम
|अनुवादक=
|संग्रह=रहीम दोहावली
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[[Category:दोहे]]{{KKCatDoha}}देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन । <BR/poem>लोग भरम हम पै धरैंतैं रहीम मन आपुनो, याते नीचे नैन ॥ 1 ॥ <BR/><BR/>कीन्हों चारु चकोर।निसि बासर लागो रहै, कृष्णचंद्र की ओर॥1॥
बसि कुसंग चाहत कुसलअच्युत-चरण-तरंगिणी, यह रहीम जिय सोस । <BR/>शिव-सिर-मालति-माल।महिमा घटी समुन्द्र कीहरि न बनायो सुरसरी, रावन बस्यो परोस ॥ 2 ॥ <BR/><BR/>कीजो इंदव-भाल॥2॥
रहिमन कुटिल कुठार ज्योंअधम वचन काको फल्यो, कटि डारत द्वै टूक । <BR/>बैठि ताड़ की छाँह।चतुरन को कसकत रहेरहिमन काम न आय है, समय चूक की हूक ॥ 3 ॥ <BR/><BR/>ये नीरस जग माँह॥3॥
अच्युत चरन तरंगिनीअन्तर दाव लगी रहै, शिव सिर मालति माल । <BR/>हरि धुआँ न बनायो सुरसरीप्रगटै सोइ।कै जिय आपन जानहीं, कीजो इंदव भाल ॥ 4 ॥ <BR/><BR/>कै जिहि बीती होइ॥4॥
अमर बेलि बिनु मूल कीअनकीन्हीं बातैं करै, प्रतिपालत है ताहि । <BR/>सोवत जागे जोय।रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजिताहि सिखाय जगायबो, खोजत फिरिए काहि ॥ 5 ॥ <BR/><BR/>रहिमन उचित न होय॥5॥
अधम बचन ते को फल्योअनुचित उचित रहीम लघु, बैठि ताड़ की छाह । <BR/>करहिं बड़ेन के जोर।रहिमन काम न आइहैज्यों ससि के संजोग तें, ये नीरस जग मांह ॥ 6 ॥ <BR/><BR/>पचवत आगि चकोर॥6॥
अनुचित बचन वचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि । <BR/>गाढ़ि।है रहीम रहीम रघुनाथ तेतें, सुजस भरत को बाढ़ि ॥ 7 ॥ <BR/><BR/>बाढ़ि॥7॥
अनुचित उचित अब रहीम लघुचुप करि रहउ, करहि बड़ेन के जोर । <BR/>समुझि दिनन कर फेर।ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥ 8 ॥ <BR/><BR/>जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर॥8॥
अब रहीम मुसकिल परीमुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम । <BR/>काम।सांचे साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥ 9 ॥ <BR/><BR/>राम॥9॥
ऊगत जाही किरण सोंअमर बेलि बिनु मूल की, अथवत ताही कांति । <BR/>प्रतिपालत है ताहि।त्यों रहीम सुख दुख सबैरहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, बढ़त एक ही भांति ॥ 10 ॥ खोजत फिरिए काहि॥10॥
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल । <BR/>औरन को रोकत फिरैंअमृत ऐसे वचन में, रहिमन पेड़ बबूल ॥ 11 ॥ <BR/><BR/>आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं । <BR/>रिस की गाँस।जो रहीम कोटिन मिलेजैसे मिसिरिहु में मिली, धिक जीवन जग माहिं ॥ 12 ॥ <BR/><BR/>निरस बाँस की फाँस॥11॥
आवत काज रहीम कहिअरज गरज मानैं नहीं, गाढ़े बंधे सनेह । <BR/>रहिमन ए जन चारि।जीरन होत न पेड़ ज्योंरिनिया, थामें बरै बरेह ॥ 13 ॥ <BR/><BR/>राजा, माँगता, काम आतुरी नारि॥12॥
अरज गरज मानै नहींअसमय परे रहीम कहि, रहिमन ये जन चारि । <BR/>माँगि जात तजि लाज।रिनियां राजा मांगताज्यों लछमन माँगन गये, काम आतुरी नारि ॥ 14 ॥ <BR/><BR/>पारासर के नाज॥13॥
एकै साधे सब सधैआदर घटे नरेस ढिंग, सब साधे सब जाय । <BR/>बसे रहे कछु नाहिं।रहिमन मूलहिं सींचिबोजो रहीम कोटिन मिले, फूलै फलै अघाय ॥ 15 ॥ <BR/><BR/>धिग जीवन जग माहिं॥14॥
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो आप न जाय । <BR/>काहू काम के, डार पात फल फूल।जिन आंखिन सों हरि लख्योऔरन को रोकत फिरैं, रहिमन बलि बलि जाय ॥ 16 ॥ <BR/><BR/>पेड़ बबूल॥15॥
अंतर दाव लगी रहैआवत काज रहीम कहि, धुआं न प्रगटै सोय । <BR/>गाढ़े बंधु सनेह।कै जिय जाने आपुनोजीरन होत न पेड़ ज्यौं, जा सिर बीती होय ॥ 17 ॥ <BR/><BR/>थामे बरै बरेह॥16॥
असमय परे रहीम कहिउरग, मांगि जात तजि लाज । <BR/>तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार।ज्यों लछमन मांगन गएरहिमन इन्हें सँभारिए, पारसार के नाज ॥ 18 ॥ <BR/><BR/>पलटत लगै न बार॥17॥
अंड न बौड़ ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति।त्यौं रहीम कहि, देखि सचिककन पान । <BR/>हस्ती ढकका कुल्हड़िनसुख दुख सवै, सहैं ते तरुवर आन ॥ 19 ॥ <BR/><BR/>बढ़त एक ही भाँति॥18॥
उरग तुरग नारी नृपतिएक उदर दो चोंच है, नीच जाति हथियार । <BR/>पंछी एक कुरंड।रहिमन इन्हें संभारिएकहि रहीम कैसे जिए, पलटत लगै न बार ॥ 20 ॥ <BR/><BR/>जुदे जुदे दो पिंड॥19॥
करत निपुनई, गुण बिनाएकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।रहिमन निपुन हजीर । <BR/>मानहु टेरत बिटप चढ़िमूलहिं सींचिबो, मोहिं समान को कूर ॥ 21 ॥ <BR/><BR/>फूलै फलै अघाय॥20॥
ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय । <BR/>ज्यों ए रहीम हनुमंत कोदर दर फिरहिं, गिरधर कहै न कोय ॥ 22 ॥ <BR/><BR/>माँगि मधुकरी खाहिं।कमला थिर न यारो यारी छोड़िये वे रहीम कहि, यह जानत सब कोय । <BR/>पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ 23 ॥ <BR/><BR/>अब नाहिं॥21॥
कमला थिर ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय।ज्यों रहीम कहिहनुमंत को, लखत अधम जे कोय । <BR/>प्रभु की सो अपनी गिरधर कहै, क्यों न फजीहत होय ॥ 24 ॥ <BR/><BR/>कोय॥22॥
करमहीन रहिमन लखोअंजन दियो तो किरकिरी, धसो बड़े घर चोर । <BR/>सुरमा दियो न जाय।चिंतत ही बड़ लाभ केजिन आँखिन सों हरि लख्यो, जगत ह्रैगो भोर ॥ 25 ॥ <BR/><BR/>रहिमन बलि बलि जाय॥23॥
कहि अंड न बौड़ रहीम धन बढ़ि घटेकहि, जात धनिन की बात । <BR/>देखि सचिक्कन पान।घटै बढ़े उनको कहाहस्ती-ढक्का, कुल्हड़िन, घास बेचि जे खात ॥ 26 ॥ <BR/><BR/>सहैं ते तरुवर आन॥24॥
कहि रहीम संपति सगेकदली, बनत बहुत बहु रीत । <BR/>सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन।बिपति कसौटी जे कसेजैसी संगति बैठिए, तेई सांचे मीत ॥ 27 ॥ <BR/><BR/>तैसोई फल दीन॥25॥
कमला थिर न रहीम कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर । <BR/>यह जानत सब कोय।रहि रहीम नर नीच मेंपुरुष पुरातन की बधू, स्वारथ स्वारथ टेर ॥ 28 ॥ <BR/><BR/>क्यों न चंचला होय॥26॥
कहु कमला थिर न रहीम केतिक रहीकहि, केतिक गई बिहाय । <BR/>लखत अधम जे कोय।माया ममता मोह परिप्रभु की सो अपनी कहै, अन्त चले पछिताय ॥ 29 ॥ <BR/><BR/>क्यों न फजीहत होय॥27॥
कहि रहीम इक दीप तेंकरत निपुनई गुन बिना, प्रगट सबै दुति होय । <BR/>रहिमन निपुन हजूर।तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥ 30 ॥ <BR/><BR/>मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर॥28॥
कहु रहीम कैसे बनैकरम हीन रहिमन लखो, अनहोनी ह्रै जाय । <BR/>धँसो बड़े घर चोर।मिला रहै औ ना मिलैचिंतत ही बड़ लाभ के, तासों कहा बसाय ॥ 31 ॥ <BR/><BR/>जागत ह्वै गौ भोर॥29॥
काज परे कछु और हैकहि रहीम इक दीप तें, काज सरे कछु और । <BR/>प्रगट सबै दुति होय।रहिमन भंवरी के भएतन सनेह कैसे दुरै, नदी सिरावत मौर ॥ 32 ॥ <BR/><BR/>दृग दीपक जरु दोय॥30॥
कहु कहि रहीम कैसे निभैधन बढ़ि घटे, बेर केर को संग । <BR/>जात धनिन की बात।वे डोलत रस आपनेघटै बढ़ै उनको कहा, उनके फाटत अंग ॥ 33 ॥ <BR/><BR/>कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय । <BR/>रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥ 34 ॥ <BR/><BR/>घास बेंचि जे खात॥31॥
काम न काहू आवई, मोल कहि रहीम न लेई । <BR/>य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर।बाजू टूटे बाज कोरहि रहीम नर नीच में, साहब चारा देई ॥ 35 ॥ <BR/><BR/>स्वारथ स्वारथ हेर॥32॥
कैसे निबहैं निबल जनकहि रहीम संपति सगे, करि सबलन सों गैर । <BR/>बनत बहुत बहु रीत।रहिमन बसि सागर बिषेबिपति कसौटी जे कसे, करत मगस सों बैर ॥ 36 ॥ <BR/><BR/>ते ही साँचे मीत॥33॥
काह कामरी पागरीकहु रहीम केतिक रही, जाड़ गए से काज । <BR/>केतिक गई बिहाय।रहिमन भूख बुताइएमाया ममता मोह परि, कैस्यो मिलै अनाज ॥ 37 ॥ <BR/><BR/>अंत चले पछिताय॥34॥
कहा करौं बैकुंठ लैकहु रहीम कैसे निभै, कल्प बृच्छ की छांह । <BR/>बेर केर को संग।रहिमन ढाक सुहावनैवे डोलत रस आपने, जो गल पीतम बांह ॥ 38 ॥ <BR/><BR/>उनके फाटत अंग॥35॥
कुटिलत संग कहु रहीम कहिकैसे बनै, साधू बचते नांहि । <BR/>अनहोनी ह्वै जाय।ज्यों नैना सैना करेंमिला रहै औ ना मिलै, उरज उमेठे जाहि ॥ 39 ॥ <BR/><BR/>तासों कहा बसाय॥36॥
कागद को रहीम पर द्वार पैसो पूतरा, जात न जिय सकुचात । <BR/>सहजहि मैं घुलि जाय।संपति के सब जात हैंरहिमन यह अचरज लखो, बिपति सबै लै जात ॥ 40 ॥ <BR/><BR/>सोऊ खैंचत बाय॥37॥
गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज । <BR/>फेरि आई बंधन काज परैकछु और है, अधम पेट के काज ॥ 41 ॥ <BR/><BR/>सरै कछु और।रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर॥38॥
खरच बढ़यो उद्द्म घटयोकाम न काहू आवई, नृपति निठुर मन कीन । <BR/>कहु मोल रहीम कैसे जिएन लेई।बाजू टूटे बाज को, थोरे जल की मीन ॥ 42 ॥ <BR/><BR/>साहब चारा देई॥39॥
खैर खून खासी खुसीकहा करौं बैकुंठ लै, बैर प्रीति मदपान । <BR/>कल्प बृच्छ की छाँह।रहिमन दाबे न दबैंदाख सुहावनो, जानत सकल जहान ॥ 43 ॥ <BR/><BR/>जो गल पीतम बाँह॥40॥
खीरा को मुंह काटि केकाह कामरी पामरी, मलियत लोन लगाय । <BR/>जाड़ गए से काज।रहिमन करुए मुखन कोभूख बुताइए, चहियत इहै सजाय ॥ 44 ॥ <BR/><BR/>गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार । <BR/>दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥ 45 ॥ <BR/><BR/>कैस्यो मिलै अनाज॥41॥
गहि सरनागत राम कीकुटिलन संग रहीम कहि, भव सागर की नाव । <BR/>साधू बचते नाहिं।रहिमन जगत उधार करज्यों नैना सैना करें, और न कछु उपाव ॥ 46 ॥ <BR/><BR/>उरज उमेठे जाहिं॥42॥
गुरुता फबै रहीम कहिकैसे निबहैं निबल जन, फबि आई है जाहि । <BR/>करि सबलन सों गैर।उर पर कुच नीके लगैंरहिमन बसि सागर बिषे, अनत बतौरी आहिं ॥ 47 ॥ <BR/><BR/>करत मगर सों वैर॥43॥
गुनते लेत कोउ रहीम जनजनि काहु के, सलिल कूपते काढ़ि । <BR/>द्वार गये पछिताय।कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू संपति के बाढ़ि ॥ 48 ॥ <BR/><BR/>सब जात हैं, विपति सबै लै जाय॥44॥
गरज आपनी आप सोंकौन बड़ाई जलधि मिलि, रहिमन कही न जाय । <BR/>गंग नाम भो धीम।जैसे कुल केहि की कुलवधुप्रभुता नहिं घटी, पर घर जात लजाय ॥ 49 ॥ <BR/><BR/>गये रहीम॥45॥
चढ़िबो मोम तुरंग परखरच बढ्यो, चलिबो पावक मांहि । <BR/>उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।प्रेम पंथ ऐसो कठिनकहु रहीम कैसे जिए, सब कोउ निबहत नाहिं ॥ 50 ॥ <BR/><BR/>थोरे जल की मीन॥46॥
चित्रकूट में रमि रहेखीरा सिर तें काटिए, रहिमन अवध नरेस । <BR/>मलियत नमक बनाय।जापर विपदा पड़त हैरहिमन करुए मुखन को, सो आवत यहि देस ॥ 51 ॥ <BR/><BR/>चहिअत इहै सजाय॥47॥
छोटेन सों सोहैं बड़ेखैंचि चढ़नि, कहि रहीम ढीली ढरनि, कहहु कौन यह लेख । <BR/>प्रीति।सहसन को हय बांधियतआज काल मोहन गही, लै दमरी बंस दिया की मेख ॥ 52 ॥ <BR/><BR/>रीति॥48॥
चरन छुए मस्तक छुएखैर, तेहु नहिं छांड़ति पानि । <BR/>खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।हियो छुवत प्रभु छोड़ि दैरहिमन दाबे ना दबैं, कहु रहीम का जानि ॥ 53 ॥ <BR/><BR/>जानत सकल जहान॥49॥
चारा प्यारा जगत मेंगरज आपनी आपसों, छाल हित कर लेइ । <BR/>रहिमन कही न जाय।ज्यों रहीम आटा लगेजैसे कुल की कुलबधू, त्यों मृदंग सुर देह ॥ 54 ॥ <BR/><BR/>पर घर जाय लजाय॥50॥
छमा बड़ेन को चाहिएगहि सरनागति राम की, छोटेन को उत्पात । <BR/>भवसागर की नाव।का रहीम हरि जो घट्योरहिमन जगत उधार कर, जो भृगु मारी लात ॥ 55 ॥ <BR/><BR/>जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर । <BR/>अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥ 56 ॥ <BR/><BR/>और न कछू उपाव॥51॥
जब लगि जीवन जगत मेंगुन ते लेत रहीम जन, सुख-दु:ख मिलन अगोट । <BR/>सलिल कूप ते काढ़ि।रहिमन फूटे गोट ज्योंकूपहु ते कहुँ होत है, परत दुहुन सिर चोट ॥ 57 ॥ <BR/><BR/>मन काहू को बाढ़ि॥52॥
जहां गांठ तहं रस नहीं, यह गुरुता फबै रहीम जग जोय । <BR/>कहि, फबि आई है जाहि।मंडप तर की गांठ मेंउर पर कुच नीके लगैं, गांठ गांठ रस होय ॥ 58 ॥ <BR/><BR/>अनत बतोरी आहि॥53॥
जब लगि विपुने न आपनुचरन छुए मस्तक छुए, तब लगि मित्त न कोय । <BR/>तेहु नहिं छाँड़ति पानि।रहिमन अंबुज अंबु बिनहियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, रवि ताकर रिपु होय ॥ 59 ॥ <BR/><BR/>कहु रहीम का जानि॥54॥
जाल परे जल जात बहिचारा प्यारा जगत में, तजि मीनन को मोह । <BR/>छाला हित कर लेय।रहिमन मछरी नीर कोज्यों रहीम आटा लगे, तऊ न छांड़ति छोह ॥ 60 ॥ <BR/><BR/>त्यों मृदंग स्वर देय॥55॥
जे अनुचितकारी तिन्हेचाह गई चिंता मिटी, लगे अंक परिनाम । <BR/>मनुआ बेपरवाह।लखे उरज उर बेधिए, क्यों जिनको कछू न होहि मुख स्याम ॥ 61 ॥ <BR/><BR/>चाहिए, वे साहन के साह॥56॥
जे गरीब सों हित करैचित्रकूट में रमि रहे, धनि रहीम वे लोग । <BR/>रहिमन अवध-नरेस।कहा सुदामा बापुरोजा पर बिपदा पड़त है, कृष्ण मिताई जोग ॥ 62 ॥ <BR/><BR/>सो आवत यह देस॥57॥
जेहि रहीम तन मन लियोचिंता बुद्धि परेखिए, कियो हिय बिचमौन । <BR/>टोटे परख त्रियाहि।तासों सुख-दुख कहन कीउसे कुबेला परखिए, रही बात अब कौन ॥ 63 ॥ <BR/><BR/>ठाकुर गुनी किआहि॥58॥
जेहि अंचल दीपक दुरयोछिमा बड़न को चाहिए, हन्यो सो ताही गात । <BR/>छोटेन को उतपात।का रहिमन असमय के परेहरि को घट्यो, मित्र शत्रु है जात ॥ 64 ॥ <BR/><BR/>जो भृगु मारी लात॥59॥
जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि । <BR/>चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥ 65 ॥ <BR/><BR/> जैसी परै छोटेन सो सहि रहैसोहैं बड़े, कहि रहीम यह देह । <BR/>धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥ 66 ॥ <BR/><BR/>जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम । <BR/>पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ 67 ॥ <BR/><BR/> जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं । <BR/>रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥ 68 ॥ <BR/><BR/> जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील । <BR/>तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥ 69 ॥ <BR/><BR/>रेख।जो बड़ेन सहसन को लघु कहेहय बाँधियत, नहिं रहीम घटि जांहि । <BR/>गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥ 70 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल । <BR/>तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥ 71 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग । <BR/>चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥ 72 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय । <BR/>प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥ 73 ॥ <BR/><BR/> जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय । <BR/>जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥ 74 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम गति दीप लै दमरी की, कुल कपूत गति सोय । <BR/>मेख॥60॥बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥ 75 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट । <BR/>समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥ 76 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ । <BR/>राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥ 77 ॥ <BR/><BR/>जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि । <BR/>ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥ 78 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ । <BR/>तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥ 79 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस । <BR/>निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥ 80 ॥ <BR/><BR/> जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात । <BR/>ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥ 81 ॥ <BR/><BR/> टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार । <BR/>रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥ 82 ॥ <BR/><BR/> जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ । <BR/>जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥ 83 ॥ <BR/><BR/> ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात । <BR/>अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥ 84 ॥ <BR/><BR/> तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान । <BR/>कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥ 85 ॥ <BR/><BR/> तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर । <BR/>निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥ 86 ॥ <BR/><BR/> तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर । <BR/>जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ 87 ॥ <BR/><BR/> तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय । <BR/>खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥ 88 ॥ <BR/><BR/>तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम । <BR/>जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥ 89 ॥ <BR/><BR/> तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस । <BR/>रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥ 90 ॥ <BR/><BR/> दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि । <BR/>पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥ 91 ॥ <BR/><BR/> थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात । <BR/>धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥ 92 ॥ <BR/><BR/> दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु । <BR/>भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥ 93 ॥ <BR/><BR/> दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय । <BR/>जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥ 94 ॥ <BR/><BR/> दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि । <BR/>सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥ 95 ॥ <BR/><BR/> दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं । <BR/>ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥ 96 ॥ <BR/><BR/> दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि । <BR/>ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥ 97 ॥ <BR/><BR/> दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर । <BR/>कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥ 98 ॥ <BR/><BR/> धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय । <BR/>उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥ 99 ॥ <BR/><BR/>धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात । <BR/>जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥ 100 ॥ <BR/><BR/poem>