{{KKRachna
|रचनाकार=रहीम
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|संग्रह=रहीम दोहावली
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[[Category:दोहे]]धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय । {{KKCatDoha}}<BR/poem>जियत कंज तजि अनत बसिजब लगि जीवन जगत में, कहा भौंर को भाय ॥ 101 ॥ <BR/><BR/>सुख दुख मिलन अगोट।रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥
धन दारा अरु सुतन सोंजब लगि बित्त न आपुने, लग्यों रहै नित चित्त । <BR/>तब लगि मित्र न कोय।नहि रहीम कोऊ लख्योरहिमन अंबुज अंबु बिनु, गाढ़े दिन को मित्त ॥ 102 ॥ <BR/><BR/>रवि नाहिंन हित होय॥62॥
दोनों रहिमन एक सेज्यों नाचत कठपूतरी, जौलों बोलत नाहिं । <BR/>करम नचावत गात।जान परत है काक पिकअपने हाथ रहीम ज्यों, ॠतु बसन्त के भांहि ॥ 103 ॥ <BR/><BR/>नहीं आपुने हाथ॥63॥
नात नेह दूरी भली, जो जलहिं मिलाय रहीम जिय जानि । <BR/>ज्यों, कियो आपु सम छीर।निकट निरादर होत हैअँगवहि आपुहि आप त्यों, ज्यों गड़ही को पानि ॥ 104 ॥ <BR/><BR/>सकल आँच की भीर॥64॥
धूर धरत नित सीस परजहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, कहु यह रहीम केहि काज । <BR/>जग जोय।जेहि रज मुनि पतनी तरीमँड़ए तर की गाँठ में, सो ढ़ूंढ़त गजराज ॥ 105 ॥ <BR/><BR/>गाँठ गाँठ रस होय॥65॥
नाद रीझि तन देत मृगजानि अनीती जे करैं, नर धन देत समेत । <BR/>जागत ही रह सोइ।ते रहिमन पसु ते अधिकताहि सिखाइ जगाइबो, रीझेहुं कछु रहिमन उचित न देत ॥ 106 ॥ <BR/><BR/>होइ॥66॥
नहिं रहीम कछु रूप गुनजाल परे जल जात बहि, नहिं मृगया अनुराग । <BR/>तजि मीनन को मोह।देसी स्वान जो राखिएरहिमन मछरी नीर को, भ्रमत भूख ही लाग ॥ 107 ॥ <BR/><BR/>तऊ न छाँड़त छोह॥67॥
निज कर क्रिया रहीम कहिजे गरीब पर हित करैं, सिधि भावी के हाथ । <BR/>ते रहीम बड़ लोग।पांसे अपने हाथ मेंकहाँ सुदामा बापुरो, दांव न अपने हाथ ॥ 108 ॥ <BR/><BR/>कृष्ण मिताई जोग॥68॥
परि रहिबो मरिबो भलोजे रहीम बिधि बड़ किए, सहिबो कठिन कलेम । <BR/>बामन हवैं बलि को छल्लोकहि दूषन काढ़ि।चंद्र दूबरो कूबरो, दियो भलो उपदेश ॥ 109 ॥ <BR/><BR/>तऊ नखत तें बाढि॥69॥
नैन सलोने अधर मधुजे सुलगे ते बुझि गए, कहु रहीम घटि कौन । <BR/>बुझे ते सुलगे नाहिं।मीठो भावे लोन पररहिमन दोहे प्रेम के, अरु मीठे पर लौन ॥ 110 ॥ <BR/><BR/>पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान । <BR/>हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ॥ 111 ॥ <BR/><BR/>बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥
पसिर पत्र झंपहि पिटहिंजेहि अंचल दीपक दुर्यो, सकुचि देत ससि सीत । <BR/>हन्यो सो ताही गात।कहु रहीम कुल कमल रहिमन असमय केपरे, को बेरी को मीत ॥ 112 ॥ <BR/><BR/>मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥
पात-पात को सीचिबोंजेहि रहीम तन मन लियो, बरी बरी को लौन । <BR/>कियो हिए बिच भौन।रहिमन ऐसी बुद्धि कोतासों दुख सुख कहन की, कहो बैरगो कौन ॥ 113 ॥ <BR/><BR/>रही बात अब कौन॥72॥
बड़ माया को दोष यहजैसी जाकी बुद्धि है, जो कबहूं घटि जाय । <BR/>तैसी कहै बनाय।तो रहीम गरिबो भलोताकों बुरा न मानिए, दुख सहि जिए बलाय ॥ 114 ॥ <BR/><BR/>लेन कहाँ सो जाय॥73॥
पुरुष पूजै देवराजसी परै सो सहि रहै, तिय पूजै रघूनाथ । <BR/>कहि रहीम दोउन बनेयह देह।धरती पर ही परत है, पड़ो बैल के साथ ॥ 115 ॥ <BR/><BR/>शीत घाम औ मेह॥74॥
पावस देखि रहीम मनजैसी तुम हमसों करी, कोइल साधे मौन । <BR/>करी करो जो तीर।अब दादुर वक्ता भएबाढ़े दिन के मीत हौ, हम को पूछत कौन ॥ 116 ॥ <BR/><BR/>गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥
प्रीतम छवि नैनन बसिजो अनुचितकारी तिन्हैं, पर छवि कहां समाय । <BR/>लगै अंक परिनाम।भरी सराय रहीम लखिलखे उरज उर बेधियत, आपु पथिक फिरि जाय ॥ 117 ॥ <BR/><BR/>क्यों न होय मुख स्याम॥76॥
बड़े दीन को दुख सुनेजो घर ही में घुस रहे, लेत दया उर आनि । <BR/>कदली सुपत सुडील।हरि हाथी सों कब हुती, कहु तो रहीम पहिचानि ॥ 118 ॥ <BR/><BR/>तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥
बड़े बड़ाई नहिं तजैंजो पुरुषारथ ते कहूँ, लघु रहीम इतराइ । <BR/>संपति मिलत रहीम।राइ करौंदा होत हैपेट लागि वैराट घर, कटहर होत न राइ ॥ 119 ॥ <BR/><BR/>तपत रसोई भीम॥78॥
बड़े पेट के भरन जो बड़ेन कोलघु कहें, है नहिं रहीम दुख बाढ़ि । <BR/>घटि जाँहि।यातें हाथी हहरि कैगिरधर मुरलीधर कहे, दयो दांत द्वै काढ़ि ॥ 120 ॥ <BR/><BR/>कछु दुख मानत नाहिं॥79॥
बढ़त रहीम धनाढय धनजो मरजाद चली सदा, धनौं धनी को जाई । <BR/>सोई तौ ठहराय।धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई ॥ 121 ॥ <BR/><BR/>बड़े बड़ाई ना करेंजल उमगै पारतें, बड़ो न बोलें बोल । <BR/>रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥ 122 ॥ <BR/><BR/>सो रहीम बहि जाय॥80॥
बरू जो रहीम कानन बसियउत्तम प्रकृति, असन करिय फल तोय । <BR/>का करि सकत कुसंग।बन्धु मध्य गति दीन हवैचंदन विष व्यापत नहीं, बसिबो उचित न होय ॥ 123 ॥ <BR/><BR/>लपटे रहत भुजंग॥81॥
बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर । <BR/>रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।नभ तारे छिपि जात हैंप्यादे सों फरजी भयो, ज्यों रहीम ये भोर ॥ 124 ॥ <BR/><BR/>टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥
बांकी चितवनि चित चढ़ीजो रहीम करिबो हुतो, सूधी तौ कछु धीम । <BR/>ब्रज को इहै हवाल।गांसी ते बढ़ि होत दुखतौ कहो कर पर धर्यो, काढ़ि न कढ़त रहीम ॥ 125 ॥ <BR/><BR/>गोवर्धन गोपाल॥83॥
विरह रूप धन तम भएजो रहीम गति दीप की, अवधि आस उधोत । <BR/>कुल कपूत गति सोय।ज्यों रहीम भादों निसाबारे उजियारो लगे, चमकि जात खद्दोत ॥ 126 ॥ <BR/><BR/>बढ़े अँधेरो होय॥84॥
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह जो रहीम जिय सोस । <BR/>महिमा घटी समुन्द्र गति दीप की, रावन बस्यो परोस ॥ 127 ॥ <BR/><BR/>सुत सपूत की सोय।बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥
बिगरी बात बने नहींजो रहीम जग मारियो, लाख करो किन कोय । <BR/>नैन बान की चोट।रहिमन बिगरै दूध कोभगत भगत कोउ बचि गये, मथे न माखन होय ॥ 128 ॥ <BR/><BR/>चरन कमल की ओट॥ 86॥
भावी काहू न दहीजो रहीम दीपक दसा, दही एक भगवान । <BR/>तिय राखत पट ओट।भावी ऐसा प्रबल समय परे ते होत है, कहि रहीम यह जानि ॥ 129 ॥ <BR/><BR/>वाही पट की चोट॥87॥
भीत गिरी पाखान कीजो रहीम पगतर परो, अररानी वहि ठाम । <BR/>रगरि नाक अरु सीस।अब रहीम धोखो यहैनिठुरा आगे रायबो, को लागै केहि काम ॥ 130 ॥ <BR/><BR/>आँस गारिबो खीस॥88॥
भजौं तो काको मैं भजौंजो रहीम तन हाथ है, तजौं तो काको आन । <BR/>मनसा कहुँ किन जाहिं।भजन तजन ते बिलग हैंजल में जो छाया परी, तेहिं रहीम जू जान ॥ 131 ॥ <BR/><BR/>काया भीजति नाहिं॥89॥
जो रहीम भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम । <BR/>तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम ॥ 132 ॥ <BR/><BR/>भलो भयो घर ते छुटयोकतौं, हस्यो सीस परिखेत । <BR/>होति आपुने हाथ।काके काके नवत हमराम न जाते हरिन संग, अपत पेट के हेत ॥ 133 ॥ <BR/><BR/>सीय न रावन साथ॥90॥
भूप गनत लघु गुनिन कोजो रहीम होती कहूँ, गुनी गुनत लघु भुप । <BR/>प्रभु-गति अपने हाथ।रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप ॥ 134 ॥ <BR/><BR/>कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥
महि नभ सर पंजर कियोजो विषया संतन तजी, रहिमन बल अवसेष । <BR/>मूढ़ ताहि लपटाय।सो अर्जुन बैराट घरज्यों नर डारत वमन कर, रहे नारि के भेष ॥ 135 ॥ <BR/><BR/>स्वान स्वाद सों खाय॥92॥
मनसिज माली कै उपजटूटे सुजन मनाइए, कहि रहीम नहिं जाय । <BR/>जौ टूटे सौ बार।फल श्यामा के उर लगेरहिमन फिरि फिरि पोहिए, फूल श्याम उर जाय ॥ 136 ॥ <BR/><BR/>टूटे मुक्ताहार॥93॥
मथत मथत माखन रहैतन रहीम है कर्म बस, दही मही विलगाय । <BR/>मन राखो ओहि ओर।रहिमन सोई मीत हैजल में उलटी नाव ज्यों, भीत परे ठहराय ॥ 137 ॥ <BR/><BR/>खैंचत गुन के जोर॥94॥
मन से कहां रहीम प्रभुतब ही लौ जीबो भलो, दृग सों कहा दिवान । <BR/>दीबो होय न धीम।देखि दृगन जो आदरैंजग में रहिबो कुचित गति, मन तोहि हाथ बिकान ॥ 138 ॥ <BR/><BR/>उचित न होय रहीम॥95॥
माह मास लहि टेसुआतरुवर फल नहिं खात हैं, मीन परे थल और । <BR/>सरबर पियहिं न पान।त्यों कहि रहीम जग जानिएपर काज हित, छुटे आपने ठौर ॥ 139 ॥ <BR/><BR/>संपति सँचहि सुजान॥96॥
मांगे मुकरिन को गयोतासों ही कछु पाइए, केहि न त्यागियो साथ । <BR/>कीजै जाकी आस।मांगत आगे सुख लहयोरीते सरवर पर गये, ते रहीम रघुनाथ ॥ 140 ॥ <BR/><BR/>कैसे बुझे पियास॥97॥
मान सरोवर ही मिलैंतेहि प्रमान चलिबो भलो, हंसनि मुक्ता भोग । <BR/>जो सब हिद ठहराइ।सफरिन भरे रहीम सरउमड़ि चलै जल पार ते, बक बालक नहिं जोग ॥ 141 ॥ <BR/><BR/>जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥
मान सहित विष खाय केतैं रहीम अब कौन है, संभु भए जगदीस । <BR/>एती खैंचत बाय।बिना मान अमृत पिएखस कागद को पूतरा, राहु कटायो सीस ॥ 142 ॥ <BR/><BR/>नमी माँहि खुल जाय॥99॥
मांगे घटत थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम पद, कितौ करो बड़ काम । <BR/>तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥ 143 ॥ <BR/><BR/>मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख । <BR/>घहरात।स्याम कंचन में सेत ज्योंधनी पुरुष निर्धन भये, दूरि कीजिअत देख ॥ 144 ॥ <BR/><BR/>करै पाछिली बात॥100॥
यद्धपि अवनि अनेक हैंथोरो किए बड़ेन की, कूपवन्त सर ताल । <BR/>बड़ी बड़ाई होय।रहिमन मान सरोवरहिंज्यों रहीम हनुमंत को, मनसा करत मराल ॥ 145 ॥ <BR/><BR/>गिरधर कहत न कोय॥101॥
मुनि नारी पाषान हीदादुर, कपि पसु गुह मातंग । <BR/>मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि।तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग ॥ 146 ॥ <BR/><BR/>रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥
मंदन दिव्य दीनता के मरिहूरसहिं, अवगुन गुन न सराहि । <BR/>का जाने जग अंधु।ज्यों रहीम बांधहू बंधैभली बिचारी दीनता, मरवा हवै अधिकाहि ॥ 147 ॥ <BR/><BR/>दीनबन्धु से बन्धु॥103॥
मुक्ता कर करपूर करदीन सबन को लखत है, चातक-जीवन जोय । <BR/>दीनहिं लखै न कोय।एतो बड़ो जो रहीम जलदीनहिं लखै, ब्याल बदन बिस होय ॥ 148 ॥ <BR/><BR/>दीनबंधु सम होय॥104॥
यह रहीम मानै नहींदीरघ दोहा अरथ के, दिन से नवा जो होय । <BR/>आखर थोरे आहिं।चीता चोर कमान केज्यों रहीम नट कुण्डली, नए ते अवगुन होय ॥ 149 ॥ <BR/><BR/>सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥105॥
यों रहीम सुख दु:ख सहतदुख नर सुनि हाँसी करै, बड़े लोग सह सांति । <BR/>धरत रहीम न धीर।उदत चंद चोहि भांति सोंकही सुनै सुनि सुनि करै, अथवत ताहि भांति ॥ 150 ॥ <BR/><BR/>ऐसे वे रघुबीर॥106॥
यह दुरदिन परे रहीम निज संग लैकहि, जनमत जगत न कोय । <BR/>दुरथल जैयत भागि।बैर प्रीति अभ्यास जसठाढ़े हूजत घूर पर, होत होत ही होय ॥ 151 ॥ <BR/><BR/>जब घर लागत आगि॥107॥
ये दुरदिन परे रहीम फीके दुवौकहि, जानि महा संतापु । <BR/>भूलत सब पहिचानि।ज्यों तिय कुच आपन गहेसोच नहीं वित हानि को, आपु बड़ाई आपु ॥ 152 ॥ <BR/><BR/>जो न होय हित हानि॥108॥
याते जान्यो मन भयोदेनहार कोउ और है, जरि बरि भसम बनाय । <BR/>भेजत सो दिन रैन।रहिमन जाहि लगाइएलोग भरम हम पै धरें, सोइ रूखो है जाय ॥ 153 ॥ <BR/><BR/>याते नीचे नैन॥109॥
रन बन व्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय । <BR/>जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गए कि सोय ॥ 154 ॥ <BR/><BR/>दोनों रहिमन अपने पेट सोंएक से, बहुत कह्यो समुझाय । <BR/>जौ लौं बोलत नाहिं।जो तू अनखाए रहेजान परत हैं काक पिक, तो सों को अनखाय ॥ 155 ॥ <BR/><BR/>ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥
रहिमन अति न कीजिएधन थोरो इज्जत बड़ी, गहि रहिए निज कानि । <BR/>कह रहीम का बात।सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात जैसे कुल की हानि ॥ 156 ॥ <BR/><BR/>कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥
वहै प्रति नहिं रीति वहधन दारा अरु सुतन सों, नहीं पाछिलो हेत । <BR/>लगो रहे नित चित्त।घटत घटत रहिमन घटैनहिं रहीम कोउ लख्यो, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥ 157 ॥ <BR/><BR/>गाढ़े दिन को मित्त॥112॥
रहिमन अपने गोत धनि रहीम जल पंक को, सबै चहत उत्साय । <BR/>लघु जिय पिअत अघाय।मृग उछरत आकास कोउदधि बड़ाई कौन हे, भूमी खनत बराह ॥ 158 ॥ <BR/><BR/>जगत पिआसो जाय॥114॥
रहिमन अब वे विरिछ कहंधरती की सी रीत है, जिनकी छांह गंभीर । <BR/>सीत घाम औ मेह।बागन बिच बिच देखियतजैसी परे सो सहि रहै, सेहुड़ कंज करीर ॥ 159 ॥ <BR/><BR/>त्यों रहीम यह देह॥115॥
रहिमन सूधी चाल तेंधूर धरत नित सीस पै, प्यादा होत उजीर । <BR/>कहु रहीम केहि काज।फरजी मीर न है सकेजेहि रज मुनिपत्नी तरी, टेढ़े की तासीर ॥ 160 ॥ <BR/><BR/>सो ढूँढ़त गजराज॥116॥
रहिमन खोटि आदि कीनहिं रहीम कछु रूप गुन, सो परिनाम लखाय । <BR/>नहिं मृगया अनुराग।जैसे दीपक तम भरवैदेसी स्वान जो राखिए, कज्जल वमन कराय ॥ 161 ॥ <BR/><BR/>भ्रमत भूख ही लाग॥117॥
रहिमन राज सराहिएनात नेह दूरी भली, ससि सुखद जो होय । <BR/>लो रहीम जिय जानि।कहा बापुरो भानु निकट निरादर होत है, तपै तरैयन खोय ॥ 162 ॥ <BR/><BR/>ज्यों गड़ही को पानि॥118॥
रहिमन आंटा के लगेनाद रीझि तन देत मृग, बाजत है दिन रात । <BR/>नर धन हेत समेत।घिउ शक्कर जे खात हैंते रहीम पशु से अधिक, तिनकी कहां बिसात ॥ 163 ॥ <BR/><BR/>रीझेहु कछू न देत॥119॥
रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार । <BR/>वायु जो ऐसी बस गई, बीचन परे पहार ॥ 164 ॥ <BR/><BR/> रहिमन रिति सराहिए, जो घत गुन सम होय । <BR/>भीति आप पै डारि कै, सबै मियावे तोय ॥ 165 ॥ <BR/><BR/>रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत । <BR/>रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥ 166 ॥ <BR/><BR/> रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि । <BR/>दूध कलारी निज कर गहे, मद समुझैं सब ताहि ॥ 167 ॥ <BR/><BR/> समय लाभ समय लाभ नहिं, समय चूक सम चूक । <BR/>चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥ 168 ॥ <BR/><BR/> रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार । <BR/>नीर चोरावै संपुटी, भारू सहे धारिआर ॥ 169 ॥ <BR/><BR/> रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग । <BR/>ज्यों सरितन सूखा करे, कुआं खनावत लोग ॥ 170 ॥ <BR/><BR/> रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय । <BR/>नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय ॥ 171 ॥ <BR/><BR/> रुप बिलोकि क्रिया रहीम तहंकहि, जहं तहं मन लगि जाय । <BR/>याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय ॥ 172 ॥ <BR/><BR/> सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम । <BR/>रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम ॥ 173 ॥ <BR/><BR/> समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात । <BR/>सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात ॥ 174 ॥ <BR/><BR/> रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय । <BR/>घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय ॥ 175 ॥ <BR/><BR/> रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार । <BR/>चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार ॥ 176 ॥ <BR/><BR/>रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय । <BR/>बीच उखारी रसभरा, रह काहै ना होय ॥ 177 ॥ <BR/><BR/> रहिमन रिस को छांड़ि कै, करो गरीबी भेस । <BR/>मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारो देस ॥ 178 ॥ <BR/><BR/> रहिमन मारगा प्रेम को, मर्मत हीत मझाव । <BR/>जो डिरिहै ते फिर कहूं, नहिं धरने को पांव ॥ 179 ॥ <BR/><BR/> रहिमन सुधि सब ते भली, लगै जो बारंबार । <BR/>बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार ॥ 180 ॥ <BR/><BR/> रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई । <BR/>छेद में ड़डा डारि कै, चहै नांद लै लेई ॥ 181 ॥ <BR/><BR/> रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय । <BR/>हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय ॥ 182 ॥ <BR/><BR/> रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप । <BR/>खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप ॥ 183 ॥ <BR/><BR/> रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं । <BR/>जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं ॥ 184 ॥ <BR/><BR/> रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ । <BR/>जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥ 185 ॥ <BR/><BR/> रहिमन मंदत बड़ेन की, लघुता होत अनूप । <BR/>बलि मरद मोचन को गए, धरि बावन को रूप ॥ 186 ॥ <BR/><BR/> रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात । <BR/>नारायण हू को भयो, बावन अंगूर गात ॥ 187 ॥ <BR/><BR/>समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान । <BR/>रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥ 188 ॥ <BR/><BR/> सरवर भाव के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम । <BR/>हाथ।पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम ॥ 189 ॥ <BR/><BR/> रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि । <BR/>गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि ॥ 190 ॥ <BR/><BR/> राम राम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि । <BR/>कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकरकानि ॥ 191 ॥ <BR/><BR/> रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन । <BR/>सहि के सोच बेसाहियो, गयो पाँसे अपने हाथ को चैन ॥ 192 ॥ <BR/><BR/> रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल । <BR/>ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल ॥ 193 ॥ <BR/><BR/> लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन । <BR/>पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान ॥ 194 ॥ <BR/><BR/> रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय । <BR/>टूटे से फिर दॉंव न मिले, मिले तो गांठ पड़ जाय ॥ 195 ॥ <BR/><BR/>अपने हाथ॥120॥ रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ । <BR/>रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दुखावै पीठ ॥ 196 ॥ <BR/><BR/> रहिमन लाख भली करो, अगुने अपुन न जाय । <BR/>राग सुनत पय पुअत हूं, सांप सहज धरि खाय ॥ 197 ॥ <BR/><BR/> रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर । <BR/>बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर ॥ 198 ॥ <BR/><BR/>रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम । <BR/>हरि बाढ़े आकास लौं, तऊ बावने नाम ॥ 199 ॥ <BR/><BR/> रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच । <BR/>मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥ 200 ॥ <BR/><BR/poem>