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<poem>{{KKCatBrajBhashaRachna}}<br>'''समर्पण'''<br>वासुदेवमयी सृष्टि की<br>उस सत्ता को<br>जिसने जीवन की<br>चिलचिलाती धूप में,<br>छाँव बन कर ठाँव दी।<br>--[[मृदुल कीर्ति]]<br> ''विनय''<br>श्याम! नै वेणु बजाई घनी,<br>शंख 'पाञ्चजन्य' गुंजाय करे।<br>अब आनि बसौ मोरी लेखनी में<br>ब्रज भाषा में गीता सुनाऔ हरे।<br>
''विनय''
श्याम! नै वेणु बजाई घनी,
शंख 'पाञ्चजन्य' गुंजाय करे।
अब आनि बसौ मोरी लेखनी में
ब्रज भाषा में गीता सुनाऔ हरे।
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* [[अध्याय १ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति]]
* [[अध्याय १ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति]]