{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=साहिर लुधियानवी|संग्रह=}}{{KKCatNazm}}<poem>रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें <br />रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए <br />दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने <br />मेरी कोशिश थी कि कमबख्त कमबख़्त को नींद आ जाए<br />
देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि की चमक <br />देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में <br />अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए <br />तू न आई मगर इस रात की पहनाई में <br />
यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई <br />जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे <br />या ज़मीनों कि की मुहब्बत में तड़प कर नागाह <br />आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे <br />
शहद सा घुल गया तल्खा़बःतल्ख़ाबा-ए-तन्हाई में <br />रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में <br />देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं <br />जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में <br />
तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी <br />फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है <br />और नग्मों नग़्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब <br />ख़्वाब मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है <br />
रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश <br />नुक़ूशवही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र <br />वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म <br />वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर<br />
तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक <br />तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा <br />क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी <br />लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा <br />
अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार <br />मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में <br />ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को <br />नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में <br />
अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती <br />तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी <br />और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है <br />गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी <br />
तेरे नग्मात नग़्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर <br />मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे <br />चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए <br />मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे <br /poem>