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रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें <br />रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए <br />दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने <br />मेरी कोशिश थी कि कमबख्त कमबख़्त को नींद आ जाए<br />
देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि की चमक <br />देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में <br />अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए <br />तू न आई मगर इस रात की पहनाई में <br />
यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई <br />
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों कि की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे
शहद सा घुल गया तल्खा़बःतल्ख़ाबा-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैं ने कि तू आई है
और नग्मों नग़्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्वाब ख़्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है
रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुकूश नुक़ूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी
तेरे नग्मात नग़्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चाँद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे
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