"समय / अर्चना कुमारी" के अवतरणों में अंतर
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10:33, 8 दिसम्बर 2015 का अवतरण
आवाजें किनारों से उतर कर
पानी में जा मिली
तुम तक नहीं पहुँची
सुना है पानी आवाज नहीं लौटाता
शायद इस कारण
या व्यवहारिकता सिखाती है
मौन चुनना,,तमाशा देखना
दो कदम पीछे खड़े होकर
डूबने का तमाशा देखते शायद
या दे देते आखिरी झटका भी
पर भूल जाते हो न जाने क्यों
कि साथ खड़े हो उठेंगे अनायास ही
कुछ अजनबी...
कि लौट आएगी जिन्दगी
पहाड़ की ऊँचाई से
भूल जाएगी चेहरा मेरा
पहाड़ों के पाँव में बहती नदी...
समय ने आँखें वहम की खोल दी
कन्धों का बोझ भी हल्का किया
मन कर दिया कठोर........
हर 'न' के बाद सनसनाती है पीठ देर तक
हृदय में मचता है प्रश्नों का कोलाहल
कोई धूँध फैलती है दृष्टि की क्षमता तक
कि अक्षम साँस टपक जाती है पिघलकर
टूटने से पहले......
याद आते हैं कुछ अनजाने चेहरे
जिनका अंजानापन गहरा होता है
अपनेपन से...
समय....
घाव भी
मरहम भी
दवा भी दुआ भी !!!