"हरि की तारीफ़ / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatNazm}} | {{KKCatNazm}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | मैं क्या क्या वस्फ़<ref>गुण, प्रशंसा</ref> कहुं, यारो उस श्याम बरन अवतारी के। | |
− | + | श्रीकृष्ण, कन्हैया, मुरलीधर मनमोहन, कुंज बिहारी के॥ | |
− | + | गोपाल, मनोहर, सांवलिया, घनश्याम, अटल बनवारी के। | |
− | + | नंद लाल, दुलारे, सुन्दर छबि, ब्रज, चंद मुकुट झलकारी के॥ | |
− | है | + | कर घूम लुटैया दधि माखन, नरछोर नवल, गिरधारी के। |
− | + | बन कुंज फिरैया रास रचन, सुखदाई, कान्ह मुरारी के॥ | |
− | + | हर आन दिखैया रूप नए, हर लीला न्यारी न्यारी के। | |
− | + | पत लाज रखैया दुख भंजन, हर भगती, भगता धारी के॥ | |
− | + | नित हरि भज, हरि भज रे बाबा, जो हरि से ध्यान लगाते हैं। | |
− | + | जो हरि की आस रखते हैं, हरि उनकी आस पुजाते हैं॥1॥ | |
− | + | ||
− | + | जो भगती हैं सो उनको तो नित हरि का नाम सुहाता है। | |
− | + | जिस ज्ञान में हरि से नेह बढ़े, वह ज्ञान उन्हें खु़श आता है॥ | |
− | हुआ | + | नित मन में हरि हरि भजते हैं, हरि भजना उनको भाता है। |
− | + | सुख मन में उनके लाता है, दुख उनके जी से जाता है॥ | |
− | + | मन उनका अपने सीने में, दिन रात भजन ठहराता है। | |
− | जो | + | हरि नाम की सुमरन करते हैं, सुख चैन उन्हें दिखलाता है॥ |
− | + | जो ध्यान बंधा है चाहत का, वह उनका मन बहलाता है। | |
− | तू | + | दिल उनका हरि हरि कहने से, हर आन नया सुख पाता॥ |
− | यह | + | हरि नाम के ज़पने से मन को, खु़श नेह जतन से रखते हैं। |
− | + | नित भगति जतन में रहते हैं, और काम भजन से रखते हैं॥2॥ | |
− | + | ||
− | जो | + | जो मन में अपने निश्चय कर हैं, द्वारे हरि के आन पड़े। |
− | + | हर वक़्त मगन हर आन खु़शी कुछ नहीं मन चिन्ता लाते॥ | |
− | + | हरि नाम भजन की परवाह है, और काम उसी से हैं रखते। | |
− | + | है मन में हरि की याद लगी, हरि सुमिरन में खुश हैं रहते॥ | |
+ | कुछ ध्यान न ईधर ऊधर का, हरि आसा पर हैं मन धरते। | ||
+ | जिस काम से हरि का ध्यान रहे, हैं काम वही हर दम करते॥ | ||
+ | कुछ आन अटक जब पड़ती है, मन बीच नहीं चिन्ता करते। | ||
+ | नित आस लगाए रहते हैं, मन भीतर हरि की किरपा से॥ | ||
+ | हर कारज में हरि किरपा से, वह मन में बात निहारत हैं। | ||
+ | मन मोहन अपनी किरपा से नित उनके काज संवारत हैं॥3॥ | ||
+ | |||
+ | श्री कृष्ण की जो जो किरपा हैं, कब मुझसे उनकी हो गिनती। | ||
+ | हैं जितनी उनकी किरपाएं, एक यह भी किरपा है उनकी॥ | ||
+ | मज़कूर<ref>चर्चा, जिक्र, वर्णन</ref> करूं जिस किरपा का, वह मैंने हैं इस भांति सुनी। | ||
+ | जो एक बस्ती है जूनागढ़, वां रहते थे महता नरसी॥ | ||
+ | थी नरसी की उन नगरी में, दूकान बड़ी सर्राफे की। | ||
+ | व्योपार बड़ा सर्राफ़ी का था, बस्ता लेखन और बही॥ | ||
+ | था रूप घना और फ़र्श बिछा, परतीत बहुत और साख बड़ी। | ||
+ | थे मिलते जुलते हर एक से और लोग थे उनसे बहुत ख़ुशी॥ | ||
+ | कुछ लेते थे, कुछ देते थे, और बहियां देखा करते थे। | ||
+ | जो लेन देन की बातें थीं, फिर उनका लेखा करते थे॥4॥ | ||
+ | |||
+ | दिन कितने में फिर नरसी का, श्री कृष्ण चरन से ध्यान लगा। | ||
+ | जब भगती हरि के कहलाये, सब लेखा जोखा भूल गया॥ | ||
+ | सब काज बिसारे काम तजे हरि नांव भजन से लागा। | ||
+ | जा बैठे साधु और संतों में, नित सुनते रहते कृष्ण कथा॥ | ||
+ | था जो कुछ दुकां बीच रखा, वह दरब जमा और पूंजी का। | ||
+ | मद प्रेम के होकर मतवाले, सब साधों को हरि नांव दिया॥ | ||
+ | हो बैठे हरि के द्वारे पर सब मीत कुटुम से हाथ उठा। | ||
+ | सब छोड़ बखेड़े दुनियां के, नित हरि सुमरन का ध्यान लगा॥ | ||
+ | हरि सुमरन से जब ध्यान लगा, फिर और किसी का ध्यान कहां। | ||
+ | जब चाहत की दूकान हुई, फिर पहली वह दूकान कहां॥5॥ | ||
+ | |||
+ | क्या काम किसी से उस मन को, जिस मन को हरि की आस लगी। | ||
+ | फिर याद किसी की क्या उसको, जिस मन ने हरि की सुमरन की॥ | ||
+ | सुख चैन से बैठे हरि द्वारे, सन्तोख मिला आनन्द हुई। | ||
+ | व्योपार हुआ जब चाहत का, फिर कैसी लेखन और बही॥ | ||
+ | न कपड़े लत्ते की परवा, न चिन्ता लुटिया थाली की। | ||
+ | जब मन को हरि की पीत हुई, फिर और ही कुछ तरतीब हुई॥ | ||
+ | धुन जितनीं लेन और देन की थी, सब मन को भूली और बिसरी। | ||
+ | नित ध्यान लगा हरि किरपा से, हर आन खु़शी और ख़ुश वक्ती॥ | ||
+ | थी मन में हरि की पीत भरी, और थैले करके रीते थे। | ||
+ | कुछ फ़िक्र न थी, सन्देह न था, हरि नाम भरोसे जीते थे॥6॥ | ||
+ | |||
+ | नित मन में हरि की आस धरे, ख़ुश रहते थे वां वो नरसी। | ||
+ | एक बेटी आलख जन्मी थी, सो दूर कहीं वह ब्याही थी॥ | ||
+ | और बेटी के घर जब शादी<ref>ख़ुशी</ref>, वां ठहरी बालक होने की। | ||
+ | तब आई ईधर उधर से सब नारियां इसके कुनबे की॥ | ||
+ | मिल बैठी घर में ढोल बजा, आनन्द ख़ुशी की धूम मची। | ||
+ | सब नाचें गायें आपस में, है रीत जो शादी की होती॥ | ||
+ | कुछ शादी की खु़श वक़्ती थी, कुछ सोंठ सठोरे की ठहरी। | ||
+ | कुछ चमक झमक थी अबरन की कुछ ख़ूबी काजल मेंहदी की॥ | ||
+ | है रस्म यही घर बेटी के, जब बालक मुंह दिखलाता है। | ||
+ | तब सामाँ उसकी छोछक का ननिहाल से भी कुछ जाता है॥7॥ | ||
+ | |||
+ | वां नारियां जितनी बैठी थीं, समध्याने में आ नरसी के। | ||
+ | जब नरसी की वां बेटी से, यह बोलीं हंस कर ताना दे॥ | ||
+ | कुछ रीत नहीं आई अब तक, ऐ लाल तुम्हारे मैके से। | ||
+ | और दिल में थी यह जानती सब वह क्या हैं और क्या भेजेंगे॥ | ||
+ | तब बोली बेटी नरसी की, उन नारियों के आकर आगे। | ||
+ | वह भगती हैं, बैरागी हैं, जो घर में था सो खो बैठे॥ | ||
+ | वह बोलीं कुछ तो लिख भेजो, यह बोली क्या उनको लिखिए। | ||
+ | कुछ उनके पास धरा होता, तो आप ही वह भिजवा देते॥ | ||
+ | जो चिट्ठी में लिख भेजूँगी, वह बांच उसे पछतावेंगे। | ||
+ | एक दमड़ी उनके पास नहीं, वह छोछक क्या भिजवावेंगे॥8॥ | ||
+ | |||
+ | उन नारियों को भी करनी थी, उस वक़्त हंसी वां नरसी की। | ||
+ | बुलवा के लिखैया जल्दी से, यह बात उन्होंने लिखवा दी॥ | ||
+ | सामान हैं जितने छोछक के, सब भेजो चिट्ठी पढ़ते ही। | ||
+ | सब चीजे़ इतनी लिखवाई, बन आएं न उनसे एक कमी॥ | ||
+ | कुछ जेठ जिठानी का कहना, कुछ बातें सास और ननदों की। | ||
+ | कुछ देवरानी की बात लिखी, कुछ उनकी जो जो थे नेगी॥ | ||
+ | थी एक टहलनी घर की जो सब बोलीं, तू भी कुछ कहती। | ||
+ | वह बोली उनसे हंस कर वां ‘मंगवाऊं’ क्या मैं पत्थर जी’॥ | ||
+ | वह लिखना क्या था वां लोगो, मन चुहल हंसी पर धरना था। | ||
+ | इन चीज़ों के लिख भेजने से, शर्मिन्दा उनको करना था॥9॥ | ||
+ | |||
+ | जब चिट्ठी नरसी पास गई, तब बांचते ही घबराय गए। | ||
+ | लजियाए मन में और कहा यह हो सकता है क्या मुझ से॥ | ||
+ | यह एक नहीं बन आता है, हैं जो जो चिट्ठी बीच लिखे। | ||
+ | है यह तो काम काठेन इस दम, वां क्यूंकर मेरी लाज रहे॥ | ||
+ | वह भेजे इतनी चीज़ों को, यां कुछ भी हो मक़दूर<ref>शक्ति, सामर्थ्य</ref> जिसे। | ||
+ | कुछ छोटी सी यह बात नहीं, इस आन भला किससे कहिये॥ | ||
+ | इस वक़्त बड़ी लाचारी है, कुछ बन नहीं आता क्या कीजे। | ||
+ | फिर ध्यान लगा हरि आसा पर, और मन को धीरज अपने दे॥ | ||
+ | वह टूटी सी एक गाड़ी थी, चढ़ उस पर बे विसवास चले। | ||
+ | सामान कुछ उनके पास न था, रख श्याम की मन में आस चले॥10॥ | ||
+ | |||
+ | हरि नाम भरोसा रख मन में, चल निकले वां से जब नरसी। | ||
+ | गो पल्ले में कुछ चीज़ न थी, पर मन में हरि की आसा थी॥ | ||
+ | थी सर पर मैली सी पगड़ी, और चोली जामे की मसकी। | ||
+ | कुछ ज़ाहिर में असबाब न था, कुछ सूरत भी लजियाई सी॥ | ||
+ | थे जाते रस्ते बीच चले, थी आस लगी हरि किरपा की। | ||
+ | कुछ इस दम मेरे पास नहीं, वां चाहिएं चीजे़ं बहुतेरी॥ | ||
+ | वां इतना कुछ है लिख भेजा, मैं फ़िक्र करूं अब किस किस की। | ||
+ | जो ध्यान में अपने लाते थे, कुछ बात वहीं बन आती थी॥ | ||
+ | जब उस नगरी में जा पहुंचे, सब बोले नरसी आते हैं। | ||
+ | और लाने की जो बात कहो, एक टूटी गाड़ी लाते हैं॥11॥ | ||
+ | |||
+ | कोई बात न आया पूछने को, जाके देखा नरसी को। | ||
+ | और जितना जितना ध्यान किया, कुछ पास न देखा उनके तो॥ | ||
+ | जब बेटी ने यह बात सुनी, कह भेजा क्या क्या लाये हो? | ||
+ | जो छोछक के सामान किये, सब घर में जल्दी भिजवा दो॥ | ||
+ | दो हंस-हंस अपने हाथों से, यां देना है अब जिस जिस को। | ||
+ | यह बोले तब उस बेटी से, हरि किरपा ऊपर ध्यान धरो॥ | ||
+ | था पास क्या बेटी अब लाने को कुछ मत पूछो। | ||
+ | कुछ ध्यान जो लाने का होवे, ”श्री कृष्ण कहो“ ”श्री कृष्ण कहो“॥ | ||
+ | इस आन जो हरि ने चाहा है, एक पल में ठाठ बनावेंगे। | ||
+ | है जो जो यां से लिख भेजा, एक आन में सब भिजवा देंगे॥12॥ | ||
+ | |||
+ | श्रीकृष्ण भरोसे जब नरसी, यह बात जो मुंह से कह बैठे। | ||
+ | क्या देखते हैं वां आते ही, सब ठाठ वह उस जा आ पहुंचे॥ | ||
+ | कुछ छकड़ों पर असबाब कसे, कुछ भैेेेसों पर कुछ ऊँट लदे। | ||
+ | थे हंसली खडु़ए सोने के, और ताश की टोपी और कुर्ते॥ | ||
+ | कुल कपड़ों पर अंबार हुए और ढेर किनारी गोटों के। | ||
+ | कुछ गहनें झमकें चार तरफ़, कुछ चमके चीर झलाझल के॥ | ||
+ | था नेग में देना एक जिसे, सो उसको बीस और तीस दिये। | ||
+ | अब वाह वाह की एक धूम मची ओर शोर अहा! हा! के ठहरे॥ | ||
+ | थी वह जो टहलनी उनके हां वह भोली जिस दम ध्यान पड़ी। | ||
+ | सो उसके लिए फिर ऊपर से एक सोने की सिल आन पड़ी॥13॥ | ||
+ | |||
+ | वां जिस दम हरि की किरपा ने, यूं नरसी की तब लाज रखी। | ||
+ | उस नगरी भीतर घर-घर में तब नरसी की तारीफ़ हुई॥ | ||
+ | बहुतेरे आदर मान हुए, और नाम बड़ाई की ठहरी। | ||
+ | जो लिख भेजी थी ताने से, हरि माया से वह सांच हुई। | ||
+ | सब लोग कुटम के शाद<ref>प्रसन्न</ref> हुए, खुश वक़्त हुई फिर बेटी भी। | ||
+ | वह नेगी भी खु़श हाल हुए, तारीफें कर कर नरसी की॥ | ||
+ | वां लोग सब आये देखने, को, और द्वारे ऊपर भीड़ लगी। | ||
+ | यह ठाठ जो देखे छोछक के, सब बस्ती भीतर धूम पड़ी। | ||
+ | जो हरि काम रखें उनका फिर पूरा क्यूं कर काम न हो। | ||
+ | जो हर दम हरि का नाम भजें, फिर क्यूंकर हरि का नाम न हो॥14॥ | ||
+ | |||
+ | श्रीकृष्ण ने वां जब पूरी की, सब नरसी के मन की आसा। | ||
+ | एक पल में कर दी दूर सभी, जो उनके मन की थी चिन्ता॥ | ||
+ | यह ऐसी छोछक ले जाते, सो इनमें था मक़दूर<ref>सामर्थ्य</ref> यह क्या। | ||
+ | यह आदर मान वहां पाते, यह इनसे कब हो सकता था॥ | ||
+ | जो हरि किरपा ने ठाठ किया, वह एक न इनसे बन आता। | ||
+ | यह इतनी जिसकी धूम मची, सो ठाठ वह था हरि किरपा का। | ||
+ | यह किरपा उन पर होती है, जो रखते हैं हरि की आसा। | ||
+ | हरि किरपा का जो वस्फ़<ref>प्रशंसा, गुण</ref> कहूं, वह बातें हैं सब ठीक बजा॥ | ||
+ | है शाह ”नज़ीर“ अब हर दम वह, जो हरि के नित बलिहारी हैं। | ||
+ | श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण बडे़ अवतारी हैं।15॥ | ||
</poem> | </poem> | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} |
14:43, 19 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
मैं क्या क्या वस्फ़<ref>गुण, प्रशंसा</ref> कहुं, यारो उस श्याम बरन अवतारी के।
श्रीकृष्ण, कन्हैया, मुरलीधर मनमोहन, कुंज बिहारी के॥
गोपाल, मनोहर, सांवलिया, घनश्याम, अटल बनवारी के।
नंद लाल, दुलारे, सुन्दर छबि, ब्रज, चंद मुकुट झलकारी के॥
कर घूम लुटैया दधि माखन, नरछोर नवल, गिरधारी के।
बन कुंज फिरैया रास रचन, सुखदाई, कान्ह मुरारी के॥
हर आन दिखैया रूप नए, हर लीला न्यारी न्यारी के।
पत लाज रखैया दुख भंजन, हर भगती, भगता धारी के॥
नित हरि भज, हरि भज रे बाबा, जो हरि से ध्यान लगाते हैं।
जो हरि की आस रखते हैं, हरि उनकी आस पुजाते हैं॥1॥
जो भगती हैं सो उनको तो नित हरि का नाम सुहाता है।
जिस ज्ञान में हरि से नेह बढ़े, वह ज्ञान उन्हें खु़श आता है॥
नित मन में हरि हरि भजते हैं, हरि भजना उनको भाता है।
सुख मन में उनके लाता है, दुख उनके जी से जाता है॥
मन उनका अपने सीने में, दिन रात भजन ठहराता है।
हरि नाम की सुमरन करते हैं, सुख चैन उन्हें दिखलाता है॥
जो ध्यान बंधा है चाहत का, वह उनका मन बहलाता है।
दिल उनका हरि हरि कहने से, हर आन नया सुख पाता॥
हरि नाम के ज़पने से मन को, खु़श नेह जतन से रखते हैं।
नित भगति जतन में रहते हैं, और काम भजन से रखते हैं॥2॥
जो मन में अपने निश्चय कर हैं, द्वारे हरि के आन पड़े।
हर वक़्त मगन हर आन खु़शी कुछ नहीं मन चिन्ता लाते॥
हरि नाम भजन की परवाह है, और काम उसी से हैं रखते।
है मन में हरि की याद लगी, हरि सुमिरन में खुश हैं रहते॥
कुछ ध्यान न ईधर ऊधर का, हरि आसा पर हैं मन धरते।
जिस काम से हरि का ध्यान रहे, हैं काम वही हर दम करते॥
कुछ आन अटक जब पड़ती है, मन बीच नहीं चिन्ता करते।
नित आस लगाए रहते हैं, मन भीतर हरि की किरपा से॥
हर कारज में हरि किरपा से, वह मन में बात निहारत हैं।
मन मोहन अपनी किरपा से नित उनके काज संवारत हैं॥3॥
श्री कृष्ण की जो जो किरपा हैं, कब मुझसे उनकी हो गिनती।
हैं जितनी उनकी किरपाएं, एक यह भी किरपा है उनकी॥
मज़कूर<ref>चर्चा, जिक्र, वर्णन</ref> करूं जिस किरपा का, वह मैंने हैं इस भांति सुनी।
जो एक बस्ती है जूनागढ़, वां रहते थे महता नरसी॥
थी नरसी की उन नगरी में, दूकान बड़ी सर्राफे की।
व्योपार बड़ा सर्राफ़ी का था, बस्ता लेखन और बही॥
था रूप घना और फ़र्श बिछा, परतीत बहुत और साख बड़ी।
थे मिलते जुलते हर एक से और लोग थे उनसे बहुत ख़ुशी॥
कुछ लेते थे, कुछ देते थे, और बहियां देखा करते थे।
जो लेन देन की बातें थीं, फिर उनका लेखा करते थे॥4॥
दिन कितने में फिर नरसी का, श्री कृष्ण चरन से ध्यान लगा।
जब भगती हरि के कहलाये, सब लेखा जोखा भूल गया॥
सब काज बिसारे काम तजे हरि नांव भजन से लागा।
जा बैठे साधु और संतों में, नित सुनते रहते कृष्ण कथा॥
था जो कुछ दुकां बीच रखा, वह दरब जमा और पूंजी का।
मद प्रेम के होकर मतवाले, सब साधों को हरि नांव दिया॥
हो बैठे हरि के द्वारे पर सब मीत कुटुम से हाथ उठा।
सब छोड़ बखेड़े दुनियां के, नित हरि सुमरन का ध्यान लगा॥
हरि सुमरन से जब ध्यान लगा, फिर और किसी का ध्यान कहां।
जब चाहत की दूकान हुई, फिर पहली वह दूकान कहां॥5॥
क्या काम किसी से उस मन को, जिस मन को हरि की आस लगी।
फिर याद किसी की क्या उसको, जिस मन ने हरि की सुमरन की॥
सुख चैन से बैठे हरि द्वारे, सन्तोख मिला आनन्द हुई।
व्योपार हुआ जब चाहत का, फिर कैसी लेखन और बही॥
न कपड़े लत्ते की परवा, न चिन्ता लुटिया थाली की।
जब मन को हरि की पीत हुई, फिर और ही कुछ तरतीब हुई॥
धुन जितनीं लेन और देन की थी, सब मन को भूली और बिसरी।
नित ध्यान लगा हरि किरपा से, हर आन खु़शी और ख़ुश वक्ती॥
थी मन में हरि की पीत भरी, और थैले करके रीते थे।
कुछ फ़िक्र न थी, सन्देह न था, हरि नाम भरोसे जीते थे॥6॥
नित मन में हरि की आस धरे, ख़ुश रहते थे वां वो नरसी।
एक बेटी आलख जन्मी थी, सो दूर कहीं वह ब्याही थी॥
और बेटी के घर जब शादी<ref>ख़ुशी</ref>, वां ठहरी बालक होने की।
तब आई ईधर उधर से सब नारियां इसके कुनबे की॥
मिल बैठी घर में ढोल बजा, आनन्द ख़ुशी की धूम मची।
सब नाचें गायें आपस में, है रीत जो शादी की होती॥
कुछ शादी की खु़श वक़्ती थी, कुछ सोंठ सठोरे की ठहरी।
कुछ चमक झमक थी अबरन की कुछ ख़ूबी काजल मेंहदी की॥
है रस्म यही घर बेटी के, जब बालक मुंह दिखलाता है।
तब सामाँ उसकी छोछक का ननिहाल से भी कुछ जाता है॥7॥
वां नारियां जितनी बैठी थीं, समध्याने में आ नरसी के।
जब नरसी की वां बेटी से, यह बोलीं हंस कर ताना दे॥
कुछ रीत नहीं आई अब तक, ऐ लाल तुम्हारे मैके से।
और दिल में थी यह जानती सब वह क्या हैं और क्या भेजेंगे॥
तब बोली बेटी नरसी की, उन नारियों के आकर आगे।
वह भगती हैं, बैरागी हैं, जो घर में था सो खो बैठे॥
वह बोलीं कुछ तो लिख भेजो, यह बोली क्या उनको लिखिए।
कुछ उनके पास धरा होता, तो आप ही वह भिजवा देते॥
जो चिट्ठी में लिख भेजूँगी, वह बांच उसे पछतावेंगे।
एक दमड़ी उनके पास नहीं, वह छोछक क्या भिजवावेंगे॥8॥
उन नारियों को भी करनी थी, उस वक़्त हंसी वां नरसी की।
बुलवा के लिखैया जल्दी से, यह बात उन्होंने लिखवा दी॥
सामान हैं जितने छोछक के, सब भेजो चिट्ठी पढ़ते ही।
सब चीजे़ इतनी लिखवाई, बन आएं न उनसे एक कमी॥
कुछ जेठ जिठानी का कहना, कुछ बातें सास और ननदों की।
कुछ देवरानी की बात लिखी, कुछ उनकी जो जो थे नेगी॥
थी एक टहलनी घर की जो सब बोलीं, तू भी कुछ कहती।
वह बोली उनसे हंस कर वां ‘मंगवाऊं’ क्या मैं पत्थर जी’॥
वह लिखना क्या था वां लोगो, मन चुहल हंसी पर धरना था।
इन चीज़ों के लिख भेजने से, शर्मिन्दा उनको करना था॥9॥
जब चिट्ठी नरसी पास गई, तब बांचते ही घबराय गए।
लजियाए मन में और कहा यह हो सकता है क्या मुझ से॥
यह एक नहीं बन आता है, हैं जो जो चिट्ठी बीच लिखे।
है यह तो काम काठेन इस दम, वां क्यूंकर मेरी लाज रहे॥
वह भेजे इतनी चीज़ों को, यां कुछ भी हो मक़दूर<ref>शक्ति, सामर्थ्य</ref> जिसे।
कुछ छोटी सी यह बात नहीं, इस आन भला किससे कहिये॥
इस वक़्त बड़ी लाचारी है, कुछ बन नहीं आता क्या कीजे।
फिर ध्यान लगा हरि आसा पर, और मन को धीरज अपने दे॥
वह टूटी सी एक गाड़ी थी, चढ़ उस पर बे विसवास चले।
सामान कुछ उनके पास न था, रख श्याम की मन में आस चले॥10॥
हरि नाम भरोसा रख मन में, चल निकले वां से जब नरसी।
गो पल्ले में कुछ चीज़ न थी, पर मन में हरि की आसा थी॥
थी सर पर मैली सी पगड़ी, और चोली जामे की मसकी।
कुछ ज़ाहिर में असबाब न था, कुछ सूरत भी लजियाई सी॥
थे जाते रस्ते बीच चले, थी आस लगी हरि किरपा की।
कुछ इस दम मेरे पास नहीं, वां चाहिएं चीजे़ं बहुतेरी॥
वां इतना कुछ है लिख भेजा, मैं फ़िक्र करूं अब किस किस की।
जो ध्यान में अपने लाते थे, कुछ बात वहीं बन आती थी॥
जब उस नगरी में जा पहुंचे, सब बोले नरसी आते हैं।
और लाने की जो बात कहो, एक टूटी गाड़ी लाते हैं॥11॥
कोई बात न आया पूछने को, जाके देखा नरसी को।
और जितना जितना ध्यान किया, कुछ पास न देखा उनके तो॥
जब बेटी ने यह बात सुनी, कह भेजा क्या क्या लाये हो?
जो छोछक के सामान किये, सब घर में जल्दी भिजवा दो॥
दो हंस-हंस अपने हाथों से, यां देना है अब जिस जिस को।
यह बोले तब उस बेटी से, हरि किरपा ऊपर ध्यान धरो॥
था पास क्या बेटी अब लाने को कुछ मत पूछो।
कुछ ध्यान जो लाने का होवे, ”श्री कृष्ण कहो“ ”श्री कृष्ण कहो“॥
इस आन जो हरि ने चाहा है, एक पल में ठाठ बनावेंगे।
है जो जो यां से लिख भेजा, एक आन में सब भिजवा देंगे॥12॥
श्रीकृष्ण भरोसे जब नरसी, यह बात जो मुंह से कह बैठे।
क्या देखते हैं वां आते ही, सब ठाठ वह उस जा आ पहुंचे॥
कुछ छकड़ों पर असबाब कसे, कुछ भैेेेसों पर कुछ ऊँट लदे।
थे हंसली खडु़ए सोने के, और ताश की टोपी और कुर्ते॥
कुल कपड़ों पर अंबार हुए और ढेर किनारी गोटों के।
कुछ गहनें झमकें चार तरफ़, कुछ चमके चीर झलाझल के॥
था नेग में देना एक जिसे, सो उसको बीस और तीस दिये।
अब वाह वाह की एक धूम मची ओर शोर अहा! हा! के ठहरे॥
थी वह जो टहलनी उनके हां वह भोली जिस दम ध्यान पड़ी।
सो उसके लिए फिर ऊपर से एक सोने की सिल आन पड़ी॥13॥
वां जिस दम हरि की किरपा ने, यूं नरसी की तब लाज रखी।
उस नगरी भीतर घर-घर में तब नरसी की तारीफ़ हुई॥
बहुतेरे आदर मान हुए, और नाम बड़ाई की ठहरी।
जो लिख भेजी थी ताने से, हरि माया से वह सांच हुई।
सब लोग कुटम के शाद<ref>प्रसन्न</ref> हुए, खुश वक़्त हुई फिर बेटी भी।
वह नेगी भी खु़श हाल हुए, तारीफें कर कर नरसी की॥
वां लोग सब आये देखने, को, और द्वारे ऊपर भीड़ लगी।
यह ठाठ जो देखे छोछक के, सब बस्ती भीतर धूम पड़ी।
जो हरि काम रखें उनका फिर पूरा क्यूं कर काम न हो।
जो हर दम हरि का नाम भजें, फिर क्यूंकर हरि का नाम न हो॥14॥
श्रीकृष्ण ने वां जब पूरी की, सब नरसी के मन की आसा।
एक पल में कर दी दूर सभी, जो उनके मन की थी चिन्ता॥
यह ऐसी छोछक ले जाते, सो इनमें था मक़दूर<ref>सामर्थ्य</ref> यह क्या।
यह आदर मान वहां पाते, यह इनसे कब हो सकता था॥
जो हरि किरपा ने ठाठ किया, वह एक न इनसे बन आता।
यह इतनी जिसकी धूम मची, सो ठाठ वह था हरि किरपा का।
यह किरपा उन पर होती है, जो रखते हैं हरि की आसा।
हरि किरपा का जो वस्फ़<ref>प्रशंसा, गुण</ref> कहूं, वह बातें हैं सब ठीक बजा॥
है शाह ”नज़ीर“ अब हर दम वह, जो हरि के नित बलिहारी हैं।
श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण कहो, श्रीकृष्ण बडे़ अवतारी हैं।15॥