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स्मारक / अज्ञेय

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ओ बीच की पीढ़ी के लोगोंलोगो, <br>
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो: <br>
::तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे <br>
::वह घृणा <br>
::धुन्ध <br>
::कालिमा-- कालिमा— <br>
::वही घृणा फिर ह्रदय धरो! <br> <br>
पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने <br>
उन्हें जना <br>
क्या उन से, ओ बिचौलियोंबिचौलियो! यह पूछा था <br>
वे क्या मरे घृणा में? <br>
खंडहर होंगे ढूह घृणा के <br>
तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो, <br>
क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो-- हो— <br>
उन के नाम का बल, उन का बल, <br>
जिन्होंने अपने प्राण <br>
मोल आँकनेवालों की नहीं, मूल्यों को दिए... <br> <br>
ये स्मारक--नएस्मारक—नए-पुरान ढूह--नहींढूह—नहीं, <br>
वह मिट्टी ही है पूज्य: <br>
प्यार की मिट्टी <br>
जिस से सरजन होता है <br>
मूल्यों का <br>
पीढ़ी-दर-पीढ़ी! <br> <br> <br>
 <span style="font-size:14px">वोल्गोग्राद (स्तालिनग्राद) <br>जून १९६६</span>
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