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सन्नाटा / भवानीप्रसाद मिश्र

325 bytes removed, 06:08, 12 मार्च 2016
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
}}
{{KKCatKavita}}<poem>तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,<br>फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको<br>तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे<br>मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।<br><br>
कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,<br>निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं<br>मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ<br>मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।<br><br>
कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,<br>कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता है<br>जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,<br>वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।<br><br>
मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,<br>मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ<br>यह सर सर यह खड़ खड़ सब मेरी है<br>है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।<br><br>
मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,<br>जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना<br>और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के<br>अंधकार जिनसे होता है दूना।<br><br>
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,<br>तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ<br>मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ<br>मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।<br><br>
हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपर,<br>नीचे तलघर में या समतल पर, भू पर<br>कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,<br>जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।<br><br>
तुम डरो नहीं, डर वैसे कहाँ नहीं है,<br>पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है<br>बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,<br>कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।<br><br>
यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,<br>इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी<br>वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,<br>थी उसकी केवल एक यही नादानी!<br><br>
यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,<br>यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है<br>वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,<br>अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।<br><br>
शाम हुए रानी खिड़की पर आती,<br>थी पागल के गीतों को वह दुहराती<br>तब पागल आता और बजाता बंसी,<br>रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।<br><br>
किसी एक दिन राजा ने यह देखा,<br>खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा<br>यह भरा क्रोध में आया और रानी से,<br>उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।<br><br>
रानी बोली पागल को जरा बुला दो,<br>मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो<br>मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,<br>बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।<br>
वह राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,<br>ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं था<br>रानी ऐसे बोली थी, जैसे उसके<br>इस बड़े किले में कोई जेल नहीं था।<br><br>
तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,<br>रानी की कोमल देह यहीं झूली थी<br>हाँ, पागल की भी यहीं, यहीं रानी की,<br>राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी।<br><br>
किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,<br>हर जगह गूँजता था पागल का गाना<br>बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,<br>रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।<br><br>
तब और बरस बीते, राजा भी बीते,<br>रह गये किले के कमरे कमरे रीते<br>तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,<br>अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।<br><br>
पर कभी कभी जब पागल आ जाता है,<br>लाता है रानी को, या गा जाता है<br>तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर<br>अनजान एक सकता-सा छा जाता है।<br><br/poem>
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