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लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=व्यक्तिगत / भवानीप्रसाद मिश्र]]}}~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*{{KKCatKavita}}<poem>कहीं नहीं बचे<br>हरे वृक्ष<br>न ठीक सागर बचे हैं<br>न ठीक नदियाँ<br>पहाड़ उदास हैं<br>और झरने लगभग चुप<br>आँखों में<br>घिरता है अँधेरा घुप<br>दिन दहाड़े यों<br>जैसे बदल गई हो<br>तलघर में<br>दुनिया<br>कहीं नहीं बचे<br>ठीक हरे वृक्ष<br>कहीं नहीं बचा<br>ठीक चमकता सूरज<br>चाँदनी चांदनी उछालता<br>चाँद<br>चांदस्निग्धता बखेरते<br>तारे<br>काहे के सहारे खड़े<br>कभी की<br>उत्साहवन्त सदियाँ<br>इसीलिए चली<br>जा रही हैं वे<br>सिर झुकाये<br>हरेपन से हीन<br>सूखेपन की ओर<br>पंछियों के<br>आसमान में<br>चक्कर काटते दल<br>नजर नहीं आते<br>क्योंकि<br>बनाते थे<br>वे जिन पर घोंसले<br>वे वृक्ष<br>कट चुके हैं<br>क्या जाने<br>अधूरे और बंजर हम<br>अब और<br>किस बात के लिए रुके हैं<br>ऊबते क्यों नहीं हैं<br>इस तरंगहीनता<br>और सूखेपन से<br>उठते क्यों नहीं हैं यों<br>कि भर दें फिर से<br>धरती को<br>ठीक निर्झरों<br>नदियों पहाड़ों<br>वन से !<br><br/poem>
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