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"हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर / शकील बदायूँनी" के अवतरणों में अंतर

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हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ऐ-मुहब्बत कर बैठे
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हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ऐ-मुहब्बत कर बैठे
मश़हूर थी अपनी ज़िदादिली, दानिश्ता शरारत कर बैठे ।।
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मश़हूर थी अपनी ज़िदादिली, दानिश्ता शरारत कर बैठे।
  
कोशिश तो बहुत की हमने मग़र, पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
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कोशिश तो बहुत की हमने मग़र, पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी, घबरा के मुहब्बत कर बैठे ।।
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वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी, घबरा के मुहब्बत कर बैठे।
  
नज़रों से न करते पुरसिश-ए-ग़म, ख़ामोश ही रहना बेहतर था
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नज़रों से न करते पुरसिश-ए-ग़म, ख़ामोश ही रहना बेहतर था  
दीवानों को तुमने छेड़ दिया, वल्लाह कयामत कर बैठे ।।
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दीवानों को तुमने छेड़ दिया, वल्लाह कयामत कर बैठे।
  
हर चीज़ नहीं इक मरकज़ पर, इक रोज़ इधर इक रोज़ उधर
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हर चीज़ नहीं इक मरकज़ पर, इक रोज़ इधर इक रोज़ उधर  
नफरत से न देशो दुश्मन को, शायद ये मुहब्बत कर बैठे ।।
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नफरत से न देशो दुश्मन को, शायद ये मुहब्बत कर बैठे।
 
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13:43, 20 अप्रैल 2016 के समय का अवतरण

हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ऐ-मुहब्बत कर बैठे
मश़हूर थी अपनी ज़िदादिली, दानिश्ता शरारत कर बैठे।

कोशिश तो बहुत की हमने मग़र, पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी, घबरा के मुहब्बत कर बैठे।

नज़रों से न करते पुरसिश-ए-ग़म, ख़ामोश ही रहना बेहतर था
दीवानों को तुमने छेड़ दिया, वल्लाह कयामत कर बैठे।

हर चीज़ नहीं इक मरकज़ पर, इक रोज़ इधर इक रोज़ उधर
नफरत से न देशो दुश्मन को, शायद ये मुहब्बत कर बैठे।