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"जीवन-लय / देवेन्द्र आर्य" के अवतरणों में अंतर

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दिल्ली झण्डा और देशगान
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घर हो या मौसम
साधु जंगल गइया महान ।
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कुदाल या कविताएँ
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लय  टूटी तो सब के सब घायल होंगे।
  
सबके सब ठिठक गए आके
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जीवन से उलीच के जीवन को भरती
लोहे के फाटक पर पाके
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कविता उन्मुख और विमुख दोनों करती
टिन का एक टुकड़ा लटक रहा
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अगर न  रोपे गए करीने से पौधे
'कुत्ते से रहिए सावधान ।'
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हरे-भरे तो होंगे
चेहरे पर उग आई घासें
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पर जंगल होंगे।
सड़ती उम्मीदों की लाशें
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वे जब भी सोचा करते हैं
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उड़ते रहते हैं वायुयान ।
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बातों को देते पटकनिया
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ताल-छन्द
चश्मा स्याही टोपी बनिया
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ध्वनियों शब्दों की आवृत्तियाँ
उन लोगों नें फिर बदल दिया
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सुर में भी होती हैं अक्सर विकृतियाँ
अपना पहले वाला बयान ।
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कोल्हू-सा चलना तो लय हो सकता है
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लकिन उसमें  जुते  बैल की स्मृतियाँ !
  
केसरिया झण्डा शुद्ध लाभ
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कविता का विकल्प सिर्फ़ कविता होती
जैसे समझौता युद्ध लाभ
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मौसम वही कि जिसकी प्यास नहीं मरती
रस्ता चलते कुछ लोग हमें
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देते रहते हैं दिशा ग्यान ।
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एक गीत और एक बंजारा
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चाहे जितना ‘आज’ हो गए हों लकिन
अाओ खुरचें यह अन्धियारा
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हम उतना ही बचेंगे जितना ‘कल’ होंगे।
नाख़ूनों की भाषा में लिख डालें
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रोटी का संविधान ।
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फल चमकती है कुदाल की सपनें में
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घर ख़ुद ही परिभाषित होता अपने में
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लय  का रख-रखाव आवश्यक होता है
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मन के भीतर कविताओं के छपने में
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कविता में संकोच और रिश्तों में लय
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आरोहों-अवरोहों का ही नाम समय
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ग़म
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मरहम
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लहजे का ख़म और कम से कम
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बातों में हो दम तो सब कायल होंगे।
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हम इस पार रहे उस पार रही कविता
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कविता के भीतर ही हार रही कविता
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ख़तरों का भय
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यानी लय अनदेखा कर
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अपने पॉव कुल्हाड़ी मार रही कविता
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सामन्ती कविताओं
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कवि-सामन्तों से
 +
बचना होगा कविता को श्रीमन्तों से
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जीवन की गति
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संगति में हो, प्रसरित हो
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तभी प्रश्न कविताओं के भी हल होंगे।
 
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11:18, 30 मई 2016 के समय का अवतरण

घर हो या मौसम
कुदाल या कविताएँ
लय टूटी तो सब के सब घायल होंगे।

जीवन से उलीच के जीवन को भरती
कविता उन्मुख और विमुख दोनों करती
अगर न रोपे गए करीने से पौधे
हरे-भरे तो होंगे
पर जंगल होंगे।

ताल-छन्द
ध्वनियों शब्दों की आवृत्तियाँ
सुर में भी होती हैं अक्सर विकृतियाँ
कोल्हू-सा चलना तो लय हो सकता है
लकिन उसमें जुते बैल की स्मृतियाँ !

कविता का विकल्प सिर्फ़ कविता होती
मौसम वही कि जिसकी प्यास नहीं मरती

चाहे जितना ‘आज’ हो गए हों लकिन
हम उतना ही बचेंगे जितना ‘कल’ होंगे।

फल चमकती है कुदाल की सपनें में
घर ख़ुद ही परिभाषित होता अपने में
लय का रख-रखाव आवश्यक होता है
मन के भीतर कविताओं के छपने में

कविता में संकोच और रिश्तों में लय
आरोहों-अवरोहों का ही नाम समय
ग़म
मरहम
लहजे का ख़म और कम से कम
बातों में हो दम तो सब कायल होंगे।

हम इस पार रहे उस पार रही कविता
कविता के भीतर ही हार रही कविता
ख़तरों का भय
यानी लय अनदेखा कर
अपने पॉव कुल्हाड़ी मार रही कविता

सामन्ती कविताओं
कवि-सामन्तों से
बचना होगा कविता को श्रीमन्तों से
जीवन की गति
संगति में हो, प्रसरित हो
तभी प्रश्न कविताओं के भी हल होंगे।