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हेमन्त का गीत / अज्ञेय

48 bytes added, 08:28, 10 अप्रैल 2008
भर ली गई हैं पुआलें खलिहानों में: <br>
तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें। <br>
उतर चुके हैं अंगूर--गुच्छे अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, <br>
हो चुके पहली पेराई के मेले: <br>
लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख <br>
कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें, <br>
कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष, <br>
उमंगें--अकुलाहटेंउमंगें—अकुलाहटें; <br>
सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें <br>
ठिठकनें, आहटें; <br>
:::::अपने, <br>
कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही <br>
जीना और होना था-- था— <br>
जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना <br>
दोनों का को पाना था? <br> <br>
(भर ली गई हैं पुआलें <br>
हम गए जाग), पर <br>
क्या हुई वह रूपकल्पी आग? <br>
(उतर चुके अंगूर--गुच्छे अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, <br>
हो चुके पेराई के मेले। <br>
काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।) <br> <br>
रूपकल्पी आग! <br>
(तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें...) <br>
आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की <br>
:::::परछाइयाँ। <br>
पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं। <br>
तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे, <br>
कुछ और नहीं चाहिए--उसी चाहिए—उसी में गरमाई है, <br>तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नहीं नींद से भी मीठा है... <br>दूर-दूर, छुईमुईछूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे... <br> <br>
भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक <br>
मैंने तुम्हें झरन झरने पर देखा। <br>
आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के, <br>
ऐसे मंजता है कुन्दन! <br>
सवेरे का फूल! <br>
अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को <br>
नई धूप में विकसने दे-- दे— <br>
छोटी-छोटी लहरों को <br>
मूंगे की-सी झाँई देते <br>
आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट। <br>
एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की, <br>
एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की-- की— <br>
कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं! <br>
सुनो! नहीं अभी नहीं--सुना नहीं—सुना तो <br>
सब दूसरा हो जाएगा! <br>
तो दूसरा ही हो--वरंच हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!-- <br>क्या अभी भी वही हो तुम? क्या वही हूँ--क्या हूँ—क्या हूँ भी मैं? <br>यों--क्या यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं; <br>
किरणों का आसन सिमट गया, <br>
सिहरन बची रही; <br>
जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं, <br>
फिर रोमावली के साथ बह आईं <br>
भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक-- तक— <br>
फिर गुंथे हाथ <br>
और गूंजा संगीत वही <br>
फिर एक बार-- बार— <br>
दुर्निवार... <br>
(काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें। <br>उतर चुके अंगूर--गुच्छे अंगूर—गुच्छे के गुच्छे-- गुच्छे— <br>
हो चुके पेराई के मेले।) <br> <br>
एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस <br>
::::के साथ पीते हैं, <br>
एक जिसकी सोंधी खुदबुद आती बताती है <br>
कि सपने जहाँ हैं, हैं, <br>
पर एक धरती है जिस पर हम टिकें टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं... <br> <br>
आग के कितने-कितने रूप! <br>
सोचा था कि ऐसा होगा, <br>
चाहा था कि ऐसा हो, <br>
पर —पर क्या चाहा था? <br>
कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में <br>
या कि एक जलता टीक टीका हो हमारे माथों पर? <br>
(झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा <br>
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...) <br>
कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे <br>
हमने सहा <br>
ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते-- कँपते— <br>
आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य! <br>
हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य <br>
जीवन-मरण का! <br> <br>
(उतर चुके अंगूर--गुच्छे अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, <br>
तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें... <br>
हो चुके पहली पेराई के मेले <br>
लाला लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें: <br>
उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।) <br>
काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख <br>
उस की और हमारी! <br>
थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख <br>
जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी! <br> <br>
वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई। <br>
रात, रात, रात, रात, <br>
ठिठुरन--संवत्सर ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा <br>
सब कुछ ढँक गई... <br>
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