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दृश्य : दो / कुमार रवींद्र

9,325 bytes added, 22:43, 14 जुलाई 2016
|संग्रह=कटे अँगूठे का पर्व / कुमार रवींद्र
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[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूर पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। एकलव्य टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह ]
विचार-स्वर
मैं हूँ आज खड़ा।
यह द्वीप मनोरथ का
मेरी इच्छाओं का
उजला-उजला -
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई
जब बार-बार मैं भटका था
सन्देहों में -
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।
[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूरी पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। पर एकलव्य तो टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह]<br>याद मुझेवर्षों पहलेआचार्यश्रेष्ठ जब आये थे ...
विचार[एक स्मृति-स्वर : अपने सपने चित्र पारदर्शिका में उभरता है - पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। रक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के सम्मुख<br>मैं हूँ आज खड़ा।<br>यह द्वीप मनोरथ अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का,<br>मेरी इच्छाओं का <br>उजला-उजला; <br>लगता दीर्घकाय है जैसे मेरे पुण्यों - सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत - मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ - नीचे श्वेत धोती - कंधे पर तरकश - हाथ में लम्बा धनुष। तपस्या का विहान। <br>असमंजस की वह काली रात समाप्त हुईतेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। दूसरा पुरुष श्यामवर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने है। कमर में एक बड़ा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है,<br>जब बारजिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-बार मैं भटका था <br>सन्देहों सी कमान हाथ में;<br>यह पूर्णकाम होने पकड़े है। पीठ पर एक छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये है। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बेला बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है अनुपम।<br>याद मुझे <br>वर्षों पहले <br>आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे...<br><br>]
[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका के रूप में उभरता है। पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। एक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है। सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ। नीचे धोती पहने हैं। कन्धे पर तरकश; हाथ में लम्बा धनुष है। दूसरा पुरुष श्याम वर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने हैं। कमर में एक बडा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये हैं। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है।]<br><br>गौर पुरुष : भीलराज !<br>मैं चाहूँगा कि एकलव्य <br>इस घाटी से बाहर निकले।<br>बाँधों बाँधो मत इसको <br>अपनी इन सीमाओं में;<br>-बनने दो इसको प्रश्न अभी।<br>कालान्तर में<br>जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर <br>यह उत्तर बन कर बनकर आएगा,<br>तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।<br><br>
मैं देख रहा इसका भविष्यः<br>भविष्य -दक्षिणावर्त का<br>यह त्राता होगा समर्थ। <br><br>
श्याम पुरुष : भगवान् भगवन ! <br>समर्थ हैं आप<br>किन्तु....<br>हम तो हैं बर्बर भील;<br>-हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है।<br> हैअपनी इस पर्वत-गुहा पार।<br>हम हैं वन-पुत्र, <br>वनपुत्रहमारी सीमा निश्चित है।<br>आदेश हमें है नहीं <br>कि हम पर्वत छोड़ें;<br>-हम तो उद्गम हैं नदियों के-मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश। फिर ...ज्ञात आपकोहमें मानते हैं अन्त्यजउत्तर भारत के आर्य लोग।वे बली-वीर-उद्धत-समर्थ -हम संकोचों से घिरे हुए असमर्थ लोग। यह एकलव्य है सरलबालमन है अबोध -इसकी इच्छाओं को सीमित ही रहने दें। हैं आप स्वयं इतने उदार -अपने परिचित।पर सभी नहीं सह पायेंगेइस बालक का सीमोल्लंघन -दंडित होगा यहऔर तिरस्कृत-अपमानित -हो जायेंगी इसकी इच्छाएँएक दुखी अपराध-बोध। गौर पुरुष: मैं भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूँ कहता यह -यह जाति-भेदयह द्वेष नहीं हैं सच्चाई -इनकी सीमाएँ झूठी हैइनके बंधन हैं अर्थहीन -जो वीर नहींवे ही इनसे सकुचाते हैं। है नहीं कोई अंतर -मानव हैं सारे एकयही है सिर्फ सत्य -सूर्योदय की है जाति न होती कोई भी;मैं एकलव्य को उगे सूर्य-सा कर दूँगा।क्षत्रिय का लक्षणसिर्फ़ वीरता होती है -वह ही है उसका संस्कार।जो हैं समर्थवे सभी सूर्यकुल के ही हैं-सामर्थ्य बनेगा वही तुम्हारा वीर पुत्र। आतिथ्य तुम्हारा मुझे मिला परिवार सहितजो इतने दिनउसने मुझको है दिया एक विश्वास नया -आभारी हूँ।मैं वही आस्था लिये हस्तिनापुर जाता -हैं कृपाचार्य, मेरी पत्नी के बन्धु वहाँपर...मैं खोजूँगा स्वयं भूमिका अपनी शुभ।कुछ दिनों बाद संदेश तुम्हें मैं भेजूँगातब एकलव्य को मेरे पास भेज देना। [बात करते-करते वे लोग घाटी के सिरे पर आ गये हैं। पहाड़ों के बीच में एक सँकरा रास्ता दीखता है, जिससे थोड़ी दूर पर एक शकट खड़ा दिखाई देता है, जिसमें द्रोण-पत्नी कृपी एक छह-सात वर्ष के बालक के साथ बैठी हैं। पास ही अस्त्र-शस्त्र, पुस्तकें और मृगचर्म रखे हें। फलों से भरे कई टोकरे भी रखे हैं। निकट पहुँचकर भीलराज और एकलव्य कृपी को प्रणाम करते हैं। आचार्य के पैरों को छूता है एकलव्य, रुँधे कंठ से कहता है] एकलव्य: गुरुवर!मुझको आदेश करें।जब तक न आपका मुझे मिले सन्देशकरूँ क्या...होने को उपयुक्त पात्र। द्रोण: अभ्याससतत अभ्यासऔर अभ्यास और...हाँ, यही सिद्धि का परम मन्त्र। [पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य का विचार-स्वर फिर उठता है] विचार-स्वर: हो गयी प्रतीक्षा कुछ दिन कीवह लम्बी ही -दिन बीतेमहीने बीतेऔर वर्ष बीते।सन्देश नहीं आया पर गुरुवर का कोई।असहाय हुआ मैं ... उद्वेलितउद्विग्न बड़ा। [एक और पारदर्शिका उभरती है। एक टीले पर नवयुवा हुआ एकलव्य सिर झुकाए बैठा है। चिंतित-उद्विग्न-विचारों में खोया हुआ] विचार-स्वर: हो गये आज हैं सात वर्षपर नहीं कोई सन्देश मिला है गुरुवर का -क्या भूल गये वे सच मुझको? कहते हैं पिता -महानगरी हस्तिनापुरी है दूर बहुत;वे कभी वहाँ पर गये नहींपर सुनते हैं -सब हो जाते हैं अन्य वहाँ जाकर। वे दुख से समझाते हैं मुझको कई बारहैं व्यर्थ महत्त्वाकांक्षी मेरे सब सपनेजो गुरुवर ने थे दिये मुझेवर्षों पहले। अक्सर वे दोहराते हैं वचन पूर्वजों के -'हम हैं वनपुत्रहमारी सीमा निश्चित है।आदेश हमें हैं नहींकि हम पर्वत छोड़ें;अपने बांधव हैं पशु-पक्षी - हिसक पशु भी;इस जंगल के हम पार नहीं जा सकते हैं;<br>मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश। ' पर मैं क्या करूँ -हृदय मेरा उत्कंठित है;मेरी बाँहों में पलता है उत्सुक अब भीगुरु का अंतिम आदेश-मन्त्र -"अभ्यास, सतत अभ्यास और अभ्यास और"।है जाप किया इन बाँहों से मैंने इसका।पर यही नियति है क्या मेरी?क्या सिद्धि नहीं मिल पायेगीमेरी इस सतत साधना को? यह छोटी-सी घाटीये घोर घने जंगलये पर्वत हीक्या क्षितिज बनेंगे मेरी पुण्य साधना के?मैं पार न कर पाऊँगाइनको क्या जीवन भर?वह नया अर्थ जो धनुष-बाण ने मुझे दियारह जायेगा क्या अर्थहीन...असमर्थ यहीं?पर नहीं...महत्त्वाकांक्षा मुझको टेर रहीहस्तिनापुरी- मेरा गन्तव्य - बुलाती है। मैं जाऊँगा...सारी सीमाएँ लाँघवहाँ अब जाऊँगा। हो आज रातमेरे निश्चय का सूर्योदय,जंगल यह सीमाहीन मित्र मेरे मन का -मैं खोजूँगाइसमें ही अपने सपनों को;हाँ, पार जाऊँगा इसके भी। [पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य फिर वर्तमान में आ जाता है] यह आश्रम मेरा तीर्थआज मेरे सम्मुख;यह पुण्यभूमि -मेरे मन का स्वीकार अमल-मेरा भविष्य होगा सुन्दर।यह धर्मक्षेत्रजिसमें परिभाषा मुझे मिलेगीसपनों की। हो चुकी दोपहर है अब तो -विश्राम-काल।है आश्रम शान्तमौन हैं सारे पशु-पक्षीगरमी से व्याकुल सभी, लग रहा, सोते हैं।कुछ धूप ढलेतब आश्रम में मैं जाऊँगा;तब तक यह वट का वृक्ष बने मेरा आश्रय -यह मेरे सपनों का प्रतीक। [सोचते-सोचते वृक्ष की शाखा से टिके-टिके सो जाता है]<br/poem>
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