"मनमोहन प्रयाण / प्रेम प्रगास / धरनीदास" के अवतरणों में अंतर
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+ | एक दिन मंत्र कुँअर अस कियऊ। सवे शिकार सुनावत लियऊ॥ | ||
+ | जना एक हमरे ढिग आऊ। आनी वचन अपूर्व सुनाऊ॥ | ||
+ | एक ठाम अस अहै अहेरा। वन सुब्छम सावज वहुतेरा॥ | ||
+ | चलि आखेटहिं करिये जाई। दिन दुइ चारि खेलि फिरि आई॥ | ||
+ | सवमिलि कह सुनु राजकुमारा। चलिय तुरंत न लाइय वारा॥ | ||
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+ | विश्राम:- | ||
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+ | जा दिन पंछि विचारैऊ। कुंअर कीन्ह परयान॥ | ||
+ | चले सकल दल साजिके, यूथ यूथ वहरान॥62॥ | ||
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+ | चौपाई:- | ||
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+ | पुनि अस कह सेना के नाथा। द्रव्य लदाय लेहु कछु साथा॥ | ||
+ | दश योजन पुहुमी हे तांहा। कहत शिकार महोदधि जांहा॥ | ||
+ | सामग्रिहिं सब लेहु बनाई। का जानो धौं कब फिरि आई॥ | ||
+ | कुंअर नृपति को आयसु लयऊ, मस्तक नाय विदा तब भयऊ॥ | ||
+ | दिवस सात पंथहिं चलि जाई। कह्यो कुंअर तब सबहिं बुलई॥ | ||
+ | जेहि के घर होई आतुर काजा। गवनहु आज कहयो अस राजा॥ | ||
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+ | विश्राम:- | ||
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+ | घरके मोहि विसारिया, मोहन करे हमार। | ||
+ | हमरे मन वैराग मां, रचि राख्यो कत्तरि॥63॥ | ||
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+ | चौपाई:- | ||
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+ | इतना सुनि गुनि सबे कहानी। कुंअर चरन तजि हम कहं जानी॥ | ||
+ | हमतो कुंअर चहुन चित वाधा। कत दिन जियब छाँडि अपराधा॥ | ||
+ | एक वचन कहां सब कोऊ। तोहरे संग होव सो होऊ॥ | ||
+ | चित से न महथा-सुत साथा। विनती कियउ जोरि कर हाथा॥ | ||
+ | यह शंसय हमरे हमो मप मसंहस। मनसा करो कुंअर धौं कांहा॥ | ||
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+ | विश्राम:- | ||
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+ | मनमोहन मुख वोलऊ, सुनहु सबीन सति भाव। | ||
+ | पूरब अपूरब यत तिरथ, पलटि परसि घर आँव॥64॥ | ||
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+ | चौपाई:- | ||
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+ | यह सुनि सवै भये हर्षन्ता। मनसा पूरन करो अनंता॥ | ||
+ | कुँअर जो चलो निशान बजाई। प्राणमती दर्शन मन लाई॥ | ||
+ | करत कोलाहल सब जन जांही। दुख चिन्ता काहू चित नाही॥ | ||
+ | कुंअर सुरति पिंजरापर धरई। एक निमिश नहि ओझल करई॥ | ||
+ | करं न एक धरी विश्वासा। राती दिन मैना रहु पासा॥ | ||
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+ | विश्राम:- | ||
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+ | झारि खंड अमरे जहां, जंह अति दुर्गम ठाम। | ||
+ | पंथ विकट गिरि भीतरे, उतरि कियो विश्राम॥65॥ | ||
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+ | चौपाई:- | ||
+ | |||
+ | खान पान करि सब सुस्ताना। घोडहिं घास दियो पुनि दाना॥ | ||
+ | कोइ तंह गावत गुन भगवाना। कोई जन वांचत वेदपुराना॥ | ||
+ | कोइ तंह खेलत सतरंज सारी। कोइ वहु कोतुक करीह धमारी॥ | ||
+ | वनंगस मध्यविछायउ आनी। तापर नृप पम्पासुर ज्ञानी॥ | ||
+ | जिन कंह लागी निद्रा आवन। तिन लिवासनहि कीन विछावन॥ | ||
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+ | विश्राम:- | ||
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+ | तीन पहर रनिशि वीतिया, चौथ पहर भी आय। | ||
+ | कर्मसेन राजा तहां, आय परो सो धाय॥66॥ | ||
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09:49, 19 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
चौपाई:-
एक दिन मंत्र कुँअर अस कियऊ। सवे शिकार सुनावत लियऊ॥
जना एक हमरे ढिग आऊ। आनी वचन अपूर्व सुनाऊ॥
एक ठाम अस अहै अहेरा। वन सुब्छम सावज वहुतेरा॥
चलि आखेटहिं करिये जाई। दिन दुइ चारि खेलि फिरि आई॥
सवमिलि कह सुनु राजकुमारा। चलिय तुरंत न लाइय वारा॥
विश्राम:-
जा दिन पंछि विचारैऊ। कुंअर कीन्ह परयान॥
चले सकल दल साजिके, यूथ यूथ वहरान॥62॥
चौपाई:-
पुनि अस कह सेना के नाथा। द्रव्य लदाय लेहु कछु साथा॥
दश योजन पुहुमी हे तांहा। कहत शिकार महोदधि जांहा॥
सामग्रिहिं सब लेहु बनाई। का जानो धौं कब फिरि आई॥
कुंअर नृपति को आयसु लयऊ, मस्तक नाय विदा तब भयऊ॥
दिवस सात पंथहिं चलि जाई। कह्यो कुंअर तब सबहिं बुलई॥
जेहि के घर होई आतुर काजा। गवनहु आज कहयो अस राजा॥
विश्राम:-
घरके मोहि विसारिया, मोहन करे हमार।
हमरे मन वैराग मां, रचि राख्यो कत्तरि॥63॥
चौपाई:-
इतना सुनि गुनि सबे कहानी। कुंअर चरन तजि हम कहं जानी॥
हमतो कुंअर चहुन चित वाधा। कत दिन जियब छाँडि अपराधा॥
एक वचन कहां सब कोऊ। तोहरे संग होव सो होऊ॥
चित से न महथा-सुत साथा। विनती कियउ जोरि कर हाथा॥
यह शंसय हमरे हमो मप मसंहस। मनसा करो कुंअर धौं कांहा॥
विश्राम:-
मनमोहन मुख वोलऊ, सुनहु सबीन सति भाव।
पूरब अपूरब यत तिरथ, पलटि परसि घर आँव॥64॥
चौपाई:-
यह सुनि सवै भये हर्षन्ता। मनसा पूरन करो अनंता॥
कुँअर जो चलो निशान बजाई। प्राणमती दर्शन मन लाई॥
करत कोलाहल सब जन जांही। दुख चिन्ता काहू चित नाही॥
कुंअर सुरति पिंजरापर धरई। एक निमिश नहि ओझल करई॥
करं न एक धरी विश्वासा। राती दिन मैना रहु पासा॥
विश्राम:-
झारि खंड अमरे जहां, जंह अति दुर्गम ठाम।
पंथ विकट गिरि भीतरे, उतरि कियो विश्राम॥65॥
चौपाई:-
खान पान करि सब सुस्ताना। घोडहिं घास दियो पुनि दाना॥
कोइ तंह गावत गुन भगवाना। कोई जन वांचत वेदपुराना॥
कोइ तंह खेलत सतरंज सारी। कोइ वहु कोतुक करीह धमारी॥
वनंगस मध्यविछायउ आनी। तापर नृप पम्पासुर ज्ञानी॥
जिन कंह लागी निद्रा आवन। तिन लिवासनहि कीन विछावन॥
विश्राम:-
तीन पहर रनिशि वीतिया, चौथ पहर भी आय।
कर्मसेन राजा तहां, आय परो सो धाय॥66॥