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+ | * [[ठाढ़ी रहो, डगो न भगो / ठाकुर]] | ||
+ | * [[प्रात झुकाझुकी भेष छपाय कै / ठाकुर]] |
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ठाकुर
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जन्म | 1763 |
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निधन | 1824 |
जन्म स्थान | बुन्देलखंड |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
ठाकुर-ठसक | |
विविध | |
जीवन परिचय | |
ठाकुर / परिचय |
प्रतिनिधि रचनाएँ
- जौँ लौँ कोऊ पारखी सोँ होन नहिँ पाई भेँट / ठाकुर
- बैर प्रीति करिबे की मन में न राखै सँक / ठाकुर
- हिलि मिलि लीजिये प्रवीनन ते आठो याम / ठाकुर
- सेवक सिपाही सदा उन रजपूतन के / ठाकुर
- चारहू ओर उदै मुखचँद की चाँदनी चारु निहार ले री / ठाकुर
- यह प्रेम कथा कहिये किहि सोँ जो कहै तो कहा कोऊ मानत है / ठाकुर
- अब का समुझावती को समुझै बदनामी के बीज तो बो चुकी री / ठाकुर
- वा निरमोहिनि रूप की रासि न ऊपर के मन आनति ह्वै है / ठाकुर
- रूप अनूप दई बिधि तोहि तो मान किये न सयानि कहावै / ठाकुर
- धनि हैँगे वे तात औ मात जयो जिन देह धरी सो घरी धनि हैं / ठाकुर
- दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि / ठाकुर
- मेवा घनी बई काबुल में / ठाकुर
- हम एक कुराह चलीं तौ चलीं / ठाकुर
- कानन दूसरो नाम सुनै नहीं / ठाकुर
- वह कंज सो कोमल / ठाकुर
- रोज न आइये जो मन मोहन / ठाकुर
- सुरझी नहिं केतो उपाइ कियौ / ठाकुर
- तन को तरसाइबो कौने बद्यौ / ठाकुर
- लगी अंतर मैं, करै बाहिर को / ठाकुर
- ठारहे घनश्याम उतै / ठाकुर
- बरुनीन मैं नैन झुकैं उझकैं / ठाकुर
- जिन लालन चाह करी इतनी / ठाकुर
- केसर सुरंग हू के रंग में रंगौगी आजु / ठाकुर
- ठाढ़ी रहो, डगो न भगो / ठाकुर
- प्रात झुकाझुकी भेष छपाय कै / ठाकुर