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"जगजननी जय! जय / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर

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(ध्वनि आरती)
 
(ध्वनि आरती)
  
आरति गजवदन विनायक की।
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जगजननी जय! जय!! मा! जगजननी जय! जय!
  सुर-मुनि-पूजित गणनायक की॥-टेक॥
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  भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय जय॥-टेक॥
  एकदन्त शशिभाल गजानन,
+
तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मारूपा।
  विघ्रविनाशक शुभगुण-कानन,
+
सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥-१॥-जग०
  शिवसुत वन्द्यमान-चतुरानन,
+
  आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी।
  दुःख-विनाशक सुखदायक की॥-सुर०॥
+
  अमल अनन्त अगोचर अज आनँदराशी॥-२॥-जग०
  ऋञ्द्धि-सिद्धि-स्वामी समर्थ अति,
+
अविकारी, अघहारी, अकल, कलाधारी।
  विमल बुद्धि दाता सुविमल-मति,
+
  कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर सँहारकारी॥-३॥-जग०
  अघ-वन-दहन, अमल अबिगत-गति,
+
तू विधि वधू, रमा, तू उमा, महामाया।
  विद्या-विनय-विभव-दायक की॥-सुर०॥
+
  मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी, जाया॥-४॥-जग०
  पिन्गल नयन, विशाल शुण्डधर,
+
  राम, कृष्णतू, सीता, व्रजरानी राधा।
  धूम्रवर्ण शुचि वज्रांकुश-कर,
+
तू वाञ्छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥-५॥-जग०
  लबोदर बाधा-विपाि-हर,
+
दश विद्या, नव दुर्गा, नाना शस्त्रकरा।
  सुर-वन्दित सब बिधि लायक की॥-सुर०॥
+
  अष्टस्न्मातृका, योगिनि, नव-नव-रूप-धरा॥-६॥-जग०
 +
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
 +
  तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डव-लासिनि तू॥-७॥-जग०
 +
  सुर-मुनि-मोहिनि सौया तू शोभाधारा।
 +
विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी धारा॥-८॥-जग०
 +
  तू ही स्नेहसुधामयि, तू अति गरलमना।
 +
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना॥-९॥-जग०
 +
  मूलाधारनिवासिनि, इह-पर-सिद्धिप्रदे।
 +
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥-१०॥-जग०
 +
शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
 +
  भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥-११॥-जग०
 +
हम अति दीन दुखी माँ! विपत-जाल घेरे।
 +
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥-१२॥-जग०
 +
  निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
 +
करुणा कर करुणामयि! चरण-शरण दीजै॥-१३॥-जग०
 
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22:01, 29 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

(ध्वनि आरती)

जगजननी जय! जय!! मा! जगजननी जय! जय!
 भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय जय॥-टेक॥
 तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मारूपा।
 सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥-१॥-जग०
 आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी।
 अमल अनन्त अगोचर अज आनँदराशी॥-२॥-जग०
 अविकारी, अघहारी, अकल, कलाधारी।
 कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर सँहारकारी॥-३॥-जग०
 तू विधि वधू, रमा, तू उमा, महामाया।
 मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी, जाया॥-४॥-जग०
 राम, कृष्णतू, सीता, व्रजरानी राधा।
 तू वाञ्छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥-५॥-जग०
 दश विद्या, नव दुर्गा, नाना शस्त्रकरा।
 अष्टस्न्मातृका, योगिनि, नव-नव-रूप-धरा॥-६॥-जग०
 तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
 तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डव-लासिनि तू॥-७॥-जग०
 सुर-मुनि-मोहिनि सौया तू शोभाधारा।
 विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी धारा॥-८॥-जग०
 तू ही स्नेहसुधामयि, तू अति गरलमना।
 रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना॥-९॥-जग०
 मूलाधारनिवासिनि, इह-पर-सिद्धिप्रदे।
 कालातीता काली, कमला तू वरदे॥-१०॥-जग०
 शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
 भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥-११॥-जग०
 हम अति दीन दुखी माँ! विपत-जाल घेरे।
 हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥-१२॥-जग०
 निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
 करुणा कर करुणामयि! चरण-शरण दीजै॥-१३॥-जग०