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खण्ड-5 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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पोखर के ऊँचे टीले पर जाकर हाँक लगाऊँ
मन करता है शहर छोड़ कर गाँव लौट फिर जाऊँ
 
‘‘फिर तुम बोलोगे मुझसे-मैं डरा हुआ हूँ वय से
सच से भाग निकलने का है रस्ता खूब अनोखा
दे सकते हो औरों को तुम, मुझे नहीं पर धोखा
 
‘‘स्वर्ण शैल पर स्वर्ण लताएँ स्वर्णातप, स्वर्णाभा
यह तो है बस उसी प्रकृति का हर पल आगे बढ़ना
जो सच है, स्वीकार करो, मत भागो, जो दिखता है
मनुज यहाँ करने को केवल, भाग्य कोई लिखता है ।’’है।’’
‘‘भाग्य कोई जो लिखता है, तो मेरे वश में क्या है
लेकिन जल जब शांत हुआ,तो सब कुछ शांत दिखा था
खुली आँख से देखा जो कुछ, सोचा, वही लिखा था
 
‘‘लेकिन तुमने कहा ठीक ही सच से घबड़ाता हूँ
आगे का भी क्या भविष्य है, जो है तो जागे का
 ‘‘इसीलिए मैं वत्र्तमान वर्तमान की उपासना में रत हूँ
जब भी पाया अपने को, इसके आगे ही नत हूँ
स्मृति-प्रज्ञा को अपनी इस मति से जोड़ चला हूँ
कभी-कभी मुझको भी लगता, मैं तो अबुझ कला हूँ
वत्र्तमान वर्तमान की बातें करता पीछे रुक जाता हूँ
फिर भविष्य के चरणों पर ही पल में झुक जाता हूँ
अपने सारे किए कर्म का जोड़-हिसाब लगाता
गाँधी की वाणी में मिल कर मेरी वाणी विहरे
इस कोशिश में मिला मुझे जो, सोचा वही बहुत है
सबसे विरत हुआ मेरा मन, लेकिन इसमें रत है ।’’है।’’
</poem>
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