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"खिड़कियाँ खुली हों / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | या बँधकर उसमें रह जाना | ||
+ | आप बताइये | ||
+ | दोनों में क्या दूरी है | ||
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+ | ताकत छायादार हो | ||
+ | ख़ौफ और दहशत में | ||
+ | दोनों तरफ़ आग हो | ||
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15:51, 1 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
वह जल भुन गया
कविता का
अंगार पड़ गया
राग दरबारी वाले कान
सही बात के लिए
बहरे होते है
कसाई के लिए
आम आदमी
बकरे होते हैं
ताक़त अंधा बना देती है
जब लोग
काले गड्ढों के
अँधेरों में भटक् जाते हैं
और रोशनी में
आनें से घबराते हैं
बेहतरी इसमें है कि
खिड़कियाँ खुली हों और
हवाओं पर पाबंदी न हो
अपने भीतर की हवा भी
देर तक ठहर जाये तो
दम घुटता है
फिर
जो नहीं बदल पाता
वो पोखर का
पानी हो जाता है
खूँटा गाड़कर बैठ जाना
या बँधकर उसमें रह जाना
आप बताइये
दोनों में क्या दूरी है
ताकत छायादार हो
ख़ौफ और दहशत में
दोनों तरफ़ आग हो