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"मनुष्य की सोच / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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नदी निकले रसातल से
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मनुष्य को ख़ुद कुआँ
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भाषा मनुष्य के ही
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ख़ुद के लिए केवल नहीं
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संसार भी तृप्त होता
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उँगलियों में हो थकन
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एक कंधे पर
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बहुत-सा भार होता
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कभी सुख का
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कभी दुख का
 
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22:28, 1 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

पृथ्वी यह धूमती है
देखने में खडी लगती है
मनुष्य की सेाच
सपने देखती है
आँख तो तब
बन्द रहती है

एक पत्ता
पाँव भी जिसके नहीं
पंख भी जिसके नहीं
हवा के ज़ोर से चलता
सूखे पहाड़ों से
नदी निकले रसातल से
मनुष्य को ख़ुद कुआँ
खेादना पड़ता

खूबसूरत बोलियाँ हैं
जबानें भी
भाषा मनुष्य के ही
पास होती
नीड़ में कोई
भीड़ में कोई
मनुष्य की दुनिया
बड़ी होती

मनुष्य जो दिन-रात खटता
ख़ुद के लिए केवल नहीं
संसार भी तृप्त होता
बाहर-बाहर
उँगलियों में हो थकन
भीतर सुकून
एक कंधे पर
बहुत-सा भार होता
कभी सुख का
कभी दुख का