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कुंडलिया / मिलन मलरिहा

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कहत मलरिहा रोज, खार जा कुदरी धरके,
बनफुटु बड़ घपटाय, अब्बड़ मिठाथे चुरके।
 
:::::(4)
 
रिचपिच रिचपिच बाजथे, गेड़ी ह सब गाँव,
लइका चिखला मा कुदे, नई सनावय पाँव ।
नई सनावय पाँव, गेड़ी ह अलगाय रथे,
मिलजुल के फदकाय, चाहे कतको सब मथे।
मलरिहा ल कुड़काय, तोर ह बाजथे खिचरिच,
माटी-तेल ओन्ग, फेर बाजही ग रिचपिच।
 
:::::(5)
 
जीत खेलत सब नरियर, बेला-बेला फेक,
दारु-जुँवा चढ़े हवय, कोनो नइहे नेक।
कोनो नइहे नेक , हरेली गदर मचावत,
करके नसा ह खेल, घरोघर टांडव लावत।
मलरिहा ह डेराय, देखके दरूहा रीत,
नसा म डुबे समाज, कईसे मिलही ग जीत।
</poem>
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