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|रचनाकार=वीरेन्द्र कुमार जैन प्रतापनारायण मिश्र |संग्रह=कहीं और / वीरेन्द्र कुमार जैन
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<poem>
:::भारत सुत खेलत होरी ।।होरी॥प्रथम अविद्या अगिनी बारिकै, सर्वसु फूँकि दियो री ।री।आलस बस पुरिखन के जस की, चूरि उड़ाइ बहोरी ।बहोरी।:::रंग सब भंग कियो री ।।री॥छकै परस्पर बैर बारुणी, सबको ज्ञान गयो री ।री।घरन-घरन भाइन-भाइन में, जूता उछरि रह्यो री ।री।:::बकैं सब आपस में फोरी ।।फोरी॥बड़े-बड़े बीरन के वंशज, बनि बैठे सब गोरी ।गोरी।नाचि रिझावत परदेसिन को, लाज नहीं तनको री ।री।:::जु ले लहँगौ कौ छोरी ।।छोरी॥निज करतूत भयो मुख कारो, ताको सोच तज्यो री ।री।देखो यह परताप कुमति को, दुख में सुख समझ्यो री ।री।:::निलज सब देश भयो री ।।री॥
</poem>