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"बालकाण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
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खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
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संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
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अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
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जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
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सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
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जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
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सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥
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छं0-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
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कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
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सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
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अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥
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सो0-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
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बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
  
<br>चौ०-बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
+
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
<br>खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥१॥
+
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही॥
<br>संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
+
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
<br>अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥२॥
+
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥
<br>जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
+
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
<br>सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥३॥
+
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधी बिपरीत भलाई नाहीं॥
<br>जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
+
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
<br>सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥४॥
+
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
<br>छं०-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
+
दो0-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।
<br>कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
+
आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥52॥
<br>सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
+
 
<br>अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥
+
लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
<br>सो०-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
+
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
<br>बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥
+
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
<br>
+
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
<br>चौ०-जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
+
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
<br>तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥१॥
+
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
<br>जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
+
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
<br>चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥२॥
+
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
<br>इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
+
दो0-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
<br>मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥३॥
+
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
<br>होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
+
 
<br>अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥४॥
+
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
<br>दो०-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।
+
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥
<br>आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥५२॥
+
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
<br>
+
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥
<br>चौ०-लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
+
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
<br>कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥१॥
+
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
<br>सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
+
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
<br>सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥२॥
+
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
<br>सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
+
दो0-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
<br>निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥३॥
+
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
<br>जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
+
 
<br>कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥४॥
+
देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
<br>दो०-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
+
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
<br>सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥५३॥
+
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
<br>
+
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥
<br>चौ०-मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
+
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
<br>जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥१॥
+
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥
<br>जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
+
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
<br>सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥२॥
+
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
<br>फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
+
दो0-गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
<br>जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥३॥
+
लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
<br>देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
+
 
<br>बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥४॥
+
'''मासपारायण, दूसरा विश्राम'''
<br>दो०-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
+
 
<br>जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥
+
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
<br>
+
कछु न परीछा लीन्हि गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई॥
<br>चौ०-देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
+
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
<br>जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥१॥
+
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना॥
<br>पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
+
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
<br>अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥२॥
+
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
<br>सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
+
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
<br>हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥३॥
+
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
<br>बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
+
दो0-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
<br>पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥४॥
+
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
<br>दो०-गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
+
 
<br>लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥५५॥
+
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
<br>मासपारायण, दूसरा विश्राम
+
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
<br>
+
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
<br>चौ०-सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
+
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥
<br>कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥१॥
+
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
<br>जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
+
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥
<br>तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥२॥
+
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
<br>बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
+
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥
<br>हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥३॥
+
दो0-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
<br>सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
+
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57क॥
<br>जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥४॥
+
सो0-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
<br>दो०-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
+
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57ख॥
<br>प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥५६॥
+
 
<br>
+
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥
<br>चौ०-तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
+
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥
<br>एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥१॥
+
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
<br>अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
+
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥
<br>चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥२॥
+
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
<br>अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
+
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥
<br>सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥३॥
+
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
<br>कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
+
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥
<br>जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥४॥
+
दो0-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
<br>दो०-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
+
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
<br>कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥५७क॥
+
 
<br>सो०-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
+
नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
<br>बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥५७ख॥
+
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनिपति बचनु मृषा करि जाना॥
<br>
+
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
<br>चौ०-हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥
+
अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥
<br>कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥१॥
+
कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी॥
<br>संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
+
जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरती हरन बेद जसु गावा॥
<br>निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥२॥
+
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
<br>सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
+
जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥
<br>बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥३॥
+
दो0- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
<br>तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
+
होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
<br>संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥४॥
+
 
<br>दो०-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
+
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
<br>मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥५८॥
+
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥
<br>
+
राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
<br>चौ०-नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
+
जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥
<br>मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥१॥
+
लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
<br>सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
+
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥
<br>अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥२॥
+
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥
<br>कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
+
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
<br>जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥३॥
+
दो0- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
<br>तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
+
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
<br>जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥४॥
+
 
<br>दो०- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
+
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
<br>होइ मरनु जेहि बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥५९॥
+
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥
<br>
+
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
<br>चौ०-एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
+
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥
<br>बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥१॥
+
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
<br>राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
+
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥
<br>जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥२॥
+
पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
<br>लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
+
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥
<br>देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥३॥
+
दो0-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
<br>बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥
+
तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥
<br>नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥४॥
+
 
<br>दो०- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
+
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
<br>नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥६०॥
+
दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हउ बिसराई॥
<br>
+
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
<br>चौ०-किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
+
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
<br>बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥१॥
+
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
<br>सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
+
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥
<br>सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥२॥
+
भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
<br>पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
+
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥
<br>जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥३॥
+
दो0-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
<br>पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
+
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
<br>बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥४॥
+
 
<br>दो०-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
+
पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
<br>तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥
+
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥
<br>
+
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
<br>चौ०-कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
+
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥
<br>दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥१॥
+
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
<br>ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
+
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥
<br>जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥२॥
+
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
<br>जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
+
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥
<br>तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥३॥
+
दो0-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
<br>भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
+
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
<br>कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥४॥
+
 
<br>दो०-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
+
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
<br>दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥
+
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥
<br>
+
संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
<br>चौ०-पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
+
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥
<br>सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥१॥
+
जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
<br>दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
+
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥
<br>सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥२॥
+
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
<br>तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
+
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥
<br>पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥३॥
+
दो0-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
<br>जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
+
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥
<br>समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥४॥
+
 
<br>दो०-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
+
समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
<br>सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥
+
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
<br>
+
भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
<br>चौ०-सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
+
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥
<br>सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥१॥
+
सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
<br>संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
+
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥
<br>काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥२॥
+
जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥
<br>जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
+
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
<br>पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥३॥
+
दो0-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
<br>तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
+
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥
<br>अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥४॥
+
 
<br>दो०-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
+
सरिता सब पुनित जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
<br>जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४॥
+
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥
<br>
+
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
<br>चौ०-समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
+
नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥
<br>जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥१॥
+
नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
<br>भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
+
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
<br>यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संक्षेप बखानी॥२॥
+
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
<br>सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
+
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
<br>तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥३॥
+
दो0-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
<br>जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥
+
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥
<br>जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥४॥
+
 
<br>दो०-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।  
+
कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
<br>प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥६५॥
+
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥
<br>
+
सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
<br>चौ०-सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
+
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥
<br>सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहि अनुरागा॥१॥
+
होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
<br>सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
+
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥
<br>नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥२॥
+
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
<br>नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
+
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥
<br>सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥३॥
+
दो0-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
<br>नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
+
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
<br>निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥४॥
+
 
<br>दो०-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
+
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
<br>कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥६६॥
+
नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥
<br>
+
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
<br>चौ०-कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
+
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥
<br>सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥१॥
+
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
<br>सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
+
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥
<br>सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥२॥
+
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥
<br>होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
+
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
<br>एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥३॥
+
दो0-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
<br>सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
+
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
<br>अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥४॥
+
 
<br>दो०-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
+
तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
<br>अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥
+
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥
<br>
+
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
<br>चौ०-सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
+
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
<br>नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥१॥
+
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
<br>सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
+
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥
<br>होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥२॥
+
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
<br>उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
+
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई॥
<br>जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥३॥
+
दो0-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
<br>झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥
+
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
<br>उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥४॥
+
 
<br>दो०-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
+
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
<br>देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥
+
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
<br>
+
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
<br>चौ०-तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
+
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥
<br>जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥१॥
+
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
<br>जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
+
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
<br>जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥२॥
+
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
<br>जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
+
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥
<br>भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥३॥
+
दो0-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
<br>सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
+
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
<br>समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥४॥
+
 
<br>दो०-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
+
कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
<br>परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥
+
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥
<br>
+
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
<br>चौ०-सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
+
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
<br>सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥१॥
+
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
<br>संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
+
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
<br>दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥२॥
+
अस कहि परि चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
<br>जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
+
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥
<br>जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥३॥
+
दो0-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
<br>बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
+
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
<br>इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥४॥
+
 
<br>दो०-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
+
अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥
<br>होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥
+
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥
<br>
+
नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
<br>चौ०-कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
+
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥
<br>पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥१॥
+
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
<br>जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
+
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥
<br>न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥२॥
+
बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
<br>जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
+
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
<br>सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥३॥
+
दो0-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
<br>अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
+
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
<br>बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥४॥
+
 
<br>दो०-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
+
करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
<br>पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥
+
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥
<br>
+
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
<br>चौ०-अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥
+
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
<br>करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥१॥
+
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
<br>नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
+
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥
<br>अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥२॥
+
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
<br>सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
+
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥
<br>उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥३॥
+
दो0-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
<br>बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
+
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥
<br>जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥४॥
+
 
<br>दो०-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
+
उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
<br>सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥
+
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
<br>
+
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
<br>चौ०-करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
+
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
<br>मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥१॥
+
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
<br>तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
+
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥
<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥२॥
+
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥
<br>तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
+
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
<br>सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥३॥
+
दो0-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि।
<br>मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
+
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥
<br>प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥४॥
+
 
<br>दो०-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
+
अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
<br>पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥
+
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
<br>
+
आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
<br>चौ०-उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
+
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
<br>अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥१॥
+
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
<br>नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
+
उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
<br>संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥२॥
+
जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें सिव मन भयउ बिरागा॥
<br>कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
+
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
<br>बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥३॥
+
दो0-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
<br>पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥
+
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥
<br>देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥४॥
+
 
<br>दो०-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
+
कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
<br>परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४॥
+
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥
<br>
+
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
<br>चौ०-अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
+
नैमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥
<br>अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥१॥
+
प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
<br>आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
+
बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥
<br>मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥२॥
+
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
<br>सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
+
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥
<br>उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥३॥
+
दो0-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
<br>जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
+
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥
<br>जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥४॥
+
 
<br>दो०-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
+
कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
<br>बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥
+
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥
<br>
+
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
<br>चौ०-कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
+
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
<br>जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥१॥
+
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
<br>एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
+
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥
<br>नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥२॥
+
अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
<br>प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
+
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥
<br>बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥३॥
+
दो0-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
<br>बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
+
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥
<br>अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥४॥
+
 
<br>दो०-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
+
रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
<br>जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥७६॥
+
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥
<br>
+
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
<br>चौ०-कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
+
कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥
<br>सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥१॥
+
मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
<br>मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
+
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥
<br>तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥२॥
+
देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥
<br>प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
+
दो0-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह।
<br>कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥३॥
+
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥
<br>अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
+
 
<br>तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥४॥
+
दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
<br>दो०-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
+
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥
<br>गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥७७॥
+
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
<br>
+
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥
<br>चौ०-रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
+
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
<br>बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥१॥
+
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥
<br>केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
+
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
<br>कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥२॥
+
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥
<br>मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
+
दो0-अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं।
<br>नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥३॥
+
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥
<br>देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥४॥
+
 
<br>दो०-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
+
अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
<br>नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥
+
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥
<br>
+
दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
<br>चौ०-दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
+
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥
<br>चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥१॥
+
सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
<br>नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
+
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥
<br>मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥२॥
+
नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥
<br>तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
+
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥
<br>निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥३॥
+
दो0-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
<br>कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
+
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥
<br>पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥४॥
+
 
<br>दो०-अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
+
जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
<br>सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥७९॥
+
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥
<br>
+
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
<br>चौ०-अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
+
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥
<br>अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥१॥
+
जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
<br>दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
+
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥
<br>अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥२॥
+
मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
<br>सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
+
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥
<br>कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥३॥
+
दो0-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
<br>नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥
+
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥
<br>गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥४॥
+
 
<br>दो०-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
+
जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
<br>जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥८०॥
+
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥
<br>
+
भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
<br>चौ०-जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
+
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥
<br>अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥१॥
+
तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
<br>जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
+
तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥
<br>तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥२॥
+
अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
<br>जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
+
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥
<br>तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥३॥
+
दो0-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
<br>मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
+
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥
<br>देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥४॥
+
 
<br>दो०-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
+
मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
<br>नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥
+
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥
<br>
+
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
<br>चौ०-जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
+
जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥
<br>बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥१॥
+
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
<br>भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
+
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥
<br>मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥२॥
+
एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥
<br>तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
+
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥
<br>तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥३॥
+
दो0-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
<br>अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
+
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
<br>तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥४॥
+
 
<br>दो०-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
+
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
<br>संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥८२॥
+
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
<br>
+
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
<br>चौ०-मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
+
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥
<br>सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥१॥
+
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
<br>तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
+
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥
<br>जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥२॥
+
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
<br>पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
+
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥
<br>तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥३॥
+
छं0-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
<br>एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥
+
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
<br>अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥४॥
+
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
<br>दो०-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
+
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
<br>संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥८३॥
+
दो0-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
<br>
+
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
<br>चौ०-तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
+
 
<br>पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥१॥
+
सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
<br>अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
+
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
<br>चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥२॥
+
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
<br>तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
+
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
<br>कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥३॥
+
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
<br>ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
+
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
<br>सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥४॥
+
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
<br>छं०-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
+
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥
<br>सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
+
छं0-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
<br>होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
+
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
<br>दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
+
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
<br>दो०-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
+
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
<br>ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥८४॥
+
सो0-धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे।
<br>
+
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
<br>चौ०-सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
+
 
<br>नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥१॥
+
उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
<br>जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
+
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥
<br>पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥२॥
+
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
<br>मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
+
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥
<br>देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥३॥
+
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
<br>इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
+
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥
<br>सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥४॥
+
बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
<br>छं०-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
+
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥
<br>देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
+
छं0-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
<br>अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
+
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
<br>दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
+
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
<br>सो०-धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
+
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥
<br>जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥८५॥
+
दो0-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
<br>
+
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
<br>उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
+
 
<br>सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥१॥
+
देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
<br>भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
+
सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥
<br>रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥२॥
+
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छुटि समाधि संभु तब जागे॥
<br>फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
+
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥
<br>प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥३॥
+
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
<br>बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
+
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥
<br>जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥४॥
+
हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
<br>छं०-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
+
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥
<br>सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
+
छं0-जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
<br>बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
+
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
<br>कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥
+
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
<br>दो०-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
+
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
<br>चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥८६॥
+
दो0-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
<br>
+
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥
<br>चौ०-देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
+
 
<br>सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥१॥
+
जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
<br>छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
+
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
<br>भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥२॥
+
रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
<br>सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
+
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥
<br>तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥३॥
+
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
<br>हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
+
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
<br>समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥४॥
+
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
<br>छं०-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
+
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥
<br>रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
+
दो0-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
<br>अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
+
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
<br>प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
+
 
<br>दो०-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
+
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
<br>बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥
+
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥
<br>
+
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
<br>चौ०-जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
+
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥
<br>कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥१॥
+
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
<br>रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
+
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई॥
<br>देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥२॥
+
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
<br>सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
+
प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥
<br>पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥३॥
+
दो0-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
<br>बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
+
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥
<br>कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥४॥
+
 
<br>दो०-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
+
'''मासपारायण,तीसरा विश्राम'''
<br>निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥
+
 
<br>
+
सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
<br>चौ०-यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
+
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
<br>कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥१॥
+
हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
<br>सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
+
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥
<br>पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥२॥
+
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
<br>सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
+
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥
<br>तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥३॥
+
तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
<br>अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
+
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥
<br>प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥४॥
+
दो0-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
<br>दो०-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
+
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥
<br>अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥८९॥
+
 
<br>मासपारायण,तीसरा विश्राम
+
सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
<br>
+
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
<br>चौ०-सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
+
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
<br>तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥१॥
+
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥
<br>हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
+
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
<br>जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥२॥
+
जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥
<br>तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
+
लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
<br>तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥३॥
+
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥
<br>तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
+
दो0- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
<br>गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥४॥
+
होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
<br>दो०-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
+
 
<br>चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥९०॥
+
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
<br>
+
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥
<br>चौ०-सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
+
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
<br>बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥१॥
+
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥
<br>हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
+
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
<br>सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥२॥
+
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
<br>पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
+
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
<br>जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥३॥
+
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥
<br>लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
+
दो0-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
<br>सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥४॥
+
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥
<br>दो०-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
+
 
<br>होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥
+
बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
<br>
+
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥
<br>
+
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
<br>सिवहि संभुगन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
+
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥
<br>कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥१॥
+
सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
<br>ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
+
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥
<br>गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥२॥
+
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
<br>कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
+
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥
<br>देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥३॥
+
छं0-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
<br>बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
+
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
<br>सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥४॥
+
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
<br>दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
+
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
<br>बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥
+
सो0-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
<br>
+
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
<br>चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
+
 
<br>बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥१॥
+
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
<br>मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
+
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥
<br>अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥२॥
+
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
<br>सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
+
बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥
<br>नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥॥३॥
+
कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
<br>कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
+
गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥
<br>बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥४॥
+
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
<br>छं०-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
+
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥
<br>भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
+
छं0-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
<br>खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
+
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
<br>बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
+
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥
<br>सो०-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
+
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
<br>देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥
+
दो0-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
<br>जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
+
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥
<br>इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥१॥
+
 
<br>सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
+
नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
<br>बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥२॥
+
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥
<br>कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
+
हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
<br>गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥॥३॥
+
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥
<br>प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
+
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
<br>पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥४॥
+
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥
<br>छं०-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
+
कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
<br>बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
+
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥
<br>मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥
+
छं0-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
<br>बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
+
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
<br>दो०-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
+
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
<br>रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥
+
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
<br>
+
दो0-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
<br>चौ०-नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
+
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥
<br>करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥१॥
+
 
<br>हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
+
लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
<br>सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥२॥
+
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥
<br>धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
+
कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
<br>गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥॥३॥
+
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥
<br>कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
+
भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
<br>बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥४॥
+
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥
<br>छं०-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
+
अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
<br>सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
+
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥
<br>जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
+
छं0- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
<br>देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
+
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
<br>दो०-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
+
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
<br>बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥
+
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
<br>
+
दो0-भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
<br>चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
+
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥
<br>मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥
+
 
<br>कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
+
नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
<br>बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥२॥
+
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥
<br>भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
+
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
<br>मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥३॥
+
पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा॥
<br>अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
+
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
<br>जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥४॥
+
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥
<br>छं०- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
+
करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
<br>जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
+
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥
<br>तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
+
छं0-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
<br>घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
+
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
<br>दो०-भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
+
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥
<br>करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥
+
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
<br>
+
दो0-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
<br>चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
+
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥
<br>अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥१॥
+
 
<br>साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
+
तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
<br>पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कै पीरा॥२॥
+
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥
<br>जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
+
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
<br>अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥३॥
+
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥
<br>करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
+
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
<br>तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥४॥
+
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥
<br>छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
+
एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
<br>दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
+
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥
<br>सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥
+
छं0-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
<br>बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
+
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
<br>दो०-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
+
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
<br>समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥
+
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥
<br>
+
दो0-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
<br>चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
+
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
<br>मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥१॥
+
 
<br>अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
+
तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
<br>जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥२॥
+
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥
<br>जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
+
लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
<br>तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥३॥
+
भाँति अनेक भई जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥
<br>एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
+
सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
<br>भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥४॥
+
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥
<br>छं०-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
+
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
<br>हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
+
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥
<br>अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
+
छं0-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
<br>अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥
+
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
<br>दो०-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
+
जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
<br>छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥
+
अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
<br>
+
दो0-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
<br>चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
+
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
<br>नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥१॥
+
 
<br>लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
+
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
<br>भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥२॥
+
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥
<br>सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
+
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
<br>सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥३॥
+
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥
<br>बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
+
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
<br>नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥४॥
+
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥
<br>छं०-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
+
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
<br>भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
+
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥
<br>जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
+
छं0-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
<br>अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
+
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
<br>दो०-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
+
छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥
<br>समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥
+
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
<br>
+
दो0-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
<br>चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
+
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥
<br>बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥
+
</poem>
<br>सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
+
<br>बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥२॥
+
<br>बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
+
<br>देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥३॥
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<br>जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
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<br>सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥४॥
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<br>छं०-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
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<br>सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
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<br>छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥
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<br>अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
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<br>दो०-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।  
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<br>कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥
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11:27, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥
छं0-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥
सो0-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधी बिपरीत भलाई नाहीं॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
दो0-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।
आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥52॥

लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
दो0-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
दो0-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
दो0-गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥

मासपारायण, दूसरा विश्राम

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
दो0-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥
दो0-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57क॥
सो0-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57ख॥

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥
दो0-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनिपति बचनु मृषा करि जाना॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी॥
जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरती हरन बेद जसु गावा॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥
दो0- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥
लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
दो0- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥

किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥
पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥
दो0-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हउ बिसराई॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥
भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥
दो0-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥

पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥
दो0-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥
जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥
दो0-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥

समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
दो0-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥

सरिता सब पुनित जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥
नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥
दो0-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥
दो0-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥
दो0-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥

तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई॥
दो0-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥
दो0-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥
अस कहि परि चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥
दो0-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥

अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥
बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥
दो0-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥

करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥
दो0-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
दो0-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥
आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥
जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब सें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥
दो0-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नैमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥
प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥
दो0-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥
अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥
दो0-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥
मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥
देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥
दो0-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥
दो0-अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥
दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥
सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥
नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥
दो0-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥
जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥
मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥
दो0-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥
भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥
तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥
अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥
दो0-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥
एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥
दो0-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥
छं0-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
दो0-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥
छं0-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
सो0-धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥

उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥
बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥
छं0-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥
दो0-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥

देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छुटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥
हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥
छं0-जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
दो0-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥

जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥
दो0-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥
दो0-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥

मासपारायण,तीसरा विश्राम

सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥
दो0-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥
लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥
दो0- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥
दो0-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥
सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥
छं0-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
सो0-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥
कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥
छं0-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
दो0-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥
हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥
कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥
छं0-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
दो0-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥
कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥
अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥
छं0- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
दो0-भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा॥
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥
करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥
छं0-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
दो0-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥
एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥
छं0-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥
दो0-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥

तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥
लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥
छं0-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
दो0-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥
छं0-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
दो0-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥