Changes

{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
}}
{{KKPageNavigation
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
}}
{{KKCatAwadhiRachna}}
<poem>
श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
द्वितीय सोपान
अयोध्या-काण्ड
श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
<center><font size=1>श्रीगणेशायनमः</font></center><br><center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br><br><center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br><center><font size=4>द्वितीय सोपान</font></center><br><br><center><font size=5>अयोध्या काण्ड</font></center><br><br><span class="shloka"><br>श्लोक<br>यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके<br>भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।<br>सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा<br>शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम् ॥१॥ <br>प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।<br>मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा ॥२॥ <br>नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।<br>पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥३॥</span><br><br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।चारि॥<br>चौ0-जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।बधाए॥<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।बारी॥<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।आई॥<br>मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।। २ ।। भाँती॥<br>कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।करतूती॥<br>सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।। ३।।निहारी॥<br>मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।बेली॥<br>राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।। ४।।राऊ॥<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।१।।<br><br>नरेसु॥1॥
चौ0-एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>बिराजा॥सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>उछाहू॥नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>राखें॥तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>नाहीं॥मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।<br>तासू॥रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।३।।<br>कीन्हा॥श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।<br>उपदेसा॥नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>लेहू॥दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।२ ।।<br><br>जाइ॥2॥
चौ0-कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>लायक॥सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>उदासी॥सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>सोही॥बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।२ ।।<br>नाई॥जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।<br>करहीं॥मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।३।। <br>पूजें॥अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।<br>तोरें॥मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>देहू॥दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।३।।<br><br> तुम्हार॥3॥
चौ0-सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>बानी॥नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>समाजू॥मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>लाहू॥प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।२ ।।<br>माहीं॥पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ।। <br>पछिताऊ॥सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।३।।<br>भाए॥सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। <br>जाहीं॥भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।<br>अनुगामी॥दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।४।।<br><br> जुबराजु॥4॥
चौ0-मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।। <br>बोलाए॥कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए। १।।<br>सुनाए॥जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२।।<br>टीका॥मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।अभिमत बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।।<br>पानी॥विनती बिनती सचिव करहि कर जोरी।जिअहु जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>करोरी॥जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।।<br>बारा॥नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।बढ़त सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।।<br>सुसाखा॥दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>सोइ॥5॥
चौ0-हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>पानी॥औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>नाना॥चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>जाती॥मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।२ ।।<br>अभिषेका॥बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।।<br>बिताना॥सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।३।।<br>फेरा॥रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।।<br>बजारू॥पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>सेवा॥दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>लाग॥6॥
चौ0-जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>कीन्हा॥बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।। १।। <br>काजा॥सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>बधावा॥राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।२।।<br>सुहाए॥पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।<br>अहहीं॥भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।३।।<br>केरी॥भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।<br>नाहीं॥रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।४।।<br>भाँती॥दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>बिलासु॥7॥
चौ0-प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>पाए॥प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।। १।। <br>लागीं॥चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>रुरी॥आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।२।।<br>हँकारी॥पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।<br>बलिभागा॥जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।३।।<br>बरदानू॥गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।४।।<br>मृगसावकनयनीं॥दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>बिचारि॥8॥
चौ0-तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>पठाए॥गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>माथा॥सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>सनमाने॥गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।२।।<br>जोरी॥सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>दमनू॥तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।३।।<br>नीती॥प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।<br>गेहू॥आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।४।।<br>सेवकाई॥दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>अवतंस॥9॥
चौ0-बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>मुनिराऊ॥भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।। १।। <br>जुबराजू॥राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>काजू॥गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ।।२।।<br>भयऊ॥जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।।<br>लरिकाई॥करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।३।।<br>उछाहा॥बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।<br>अभिषेकू॥प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।४।।<br>कुटिलाई॥दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>चंद॥10॥
चौ0-बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br>बखाना॥भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।। १।। <br>पावहिं॥हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br>लोगाई॥कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा।।२।।<br>हमारा॥कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता।।<br>चेता॥सकल कहहिं कब होइहि काली।बिघन काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली।।३।।<br>कुचाली॥तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।चोरहि बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा।।<br>भावा॥सारद बोलि बिनय सुर करहीं।बारहिं करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं।।४।।<br>परहीं॥दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<br>रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br><br>सुरकाजु॥11॥
चौ0-सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br>हिमराती॥देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br>खोरी॥बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br>प्रभाऊ॥जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।<br>लागी॥बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।<br>पोची॥ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।<br>बिभूती॥आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।<br>मोरी॥हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।<br>दुखदाई॥दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।१२।।<br><br>फेरि॥12॥
चौ0-दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<b>बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>दाहू॥करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>राती॥देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।<br>भाँती॥भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।<br>रानी॥ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।<br>आँसू॥हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।<br>मोरें॥तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।<br>साँपिनि॥दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br>लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>सालु॥13॥
चौ0-कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br>पाई॥रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<b>जुबराजू॥भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br>नाहिन॥देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br>छोभा॥पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br>हमारें॥नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br>चतुराई॥सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br>अरगानी॥पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br>तोरी॥दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br>तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br><br> चौ0-प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br>सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br>जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br>राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br>कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br>मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br>जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br>प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br>दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br>हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br><br>मुसुकानि॥14॥
चौ0-एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br>फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br>कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br>हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br>करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br>कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br>जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु जाइ तुम्हारा।।<br>मोही॥तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br>सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br>जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br><br>राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥ चौ0-सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br>तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br>कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥तुम्ह पूँछहु मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br>करि प्रीति परीछा देखी॥सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br>जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥प्रिय सिय प्रान तें अधिक रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br>रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br>भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br>जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br>मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br>भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br><br>हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
चौ0-चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥कहहिं झूठि फुरि बात सँवारी।।<br>बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br>हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br>करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br>कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति जारै जोगु सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br>हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br>यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br>आगिलि तातें कछुक बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br>अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि गूढ़ कपट प्रबोधु।।<br>प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br><br>सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥
चौ0-भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि सादर पुनि सपथ देवाई।।<br>पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br>तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br>पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br>जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br>सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br>रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br>जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br>दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br>भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br><br> चौ0-कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br>तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br>कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br>फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।<br>सुनु मंथरा बात सो फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।<br>बानी॥रहा प्रथम अब ते दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।<br>बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।<br>भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥दो0-अपने चलत तुम्हहि आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।<br>केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br><br> चौ0-नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br>अरि सोचु सोहाग बल निज बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br>जानहु राउ।दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br>अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।<br>जेहिं मलीन मुह मीठ नृप राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।<br>जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।<br>पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।<br>भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।<br>दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br>कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br><br>कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br>लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br>सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br>कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br>दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br>सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br>भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br>होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br>दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br>काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br><br>सरल सुभाउ॥17॥
चौ0-कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br>तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br>जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br>बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br>बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br>चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br>कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br>बात सँवारी॥राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br>दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br>एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर पठए भरतु भूप दरबार।।23।।<br><br>बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच ननिअउरें। राम पहिं जाहीं।।<br>मातु मत जानव रउरें॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br>फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br>को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br>जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br>सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br>अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br>को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br>दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br>गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br><br> कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br>सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सेवहिं सकल रहहिं रुख ताकें।।<br>सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br>सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br>सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br>भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br>कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br>जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br>छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br>मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br>दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br>तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br>सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br>कारन सवति मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br><br>नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br>सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br>सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br>जानसि मोर राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br>प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br>सकइ नहिं देखी॥जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम सपथ सत मोही।।<br>तिलक हित लगन धराई॥बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br>घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br>दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br>भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br><br> पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br>भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br>रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br>दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br>ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br>लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br>जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br>कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br>दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br>देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br><br> जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br>थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि भोर सुभाऊ।।<br>झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br>रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br>नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br>सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br>तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br>सुठि नीका॥आगिलि बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br>समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br>रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br><br>मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br><br> सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br>मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br>तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br>सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br>गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br>बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br>माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br>मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br>अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कहिसि कथा सत सवति कै नेईं।।<br>दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br>जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br><br>जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br>भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br>जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br>देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध का पूछहुँ तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br>देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br>सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br>अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br>दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br>सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br><br> आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br>मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br>लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br>बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br>प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br>मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br>अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br>सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br>दो0- लोभु अबहुँ रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br>जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br><br> राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br>मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br>रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु भयउ पाखु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br>एकहि बात सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br>सन आजू॥अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br>कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br>तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br>जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br>दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br>जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत खाइअ पहिरिअ राज अभिषेकु।।32।।<br><br>तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥ जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br>कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br>समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br>सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br>कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br>देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br>रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br>जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br>दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br>मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br><br> अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br>पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br>दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br>ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br>लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br>गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br>मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br>राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br>दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br>कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br><br> ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br>कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br>पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br>असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥रामहि तिलक कालि जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु भयऊ तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br>दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br>दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br>छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br>तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br>दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br>लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br><br> चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिपति बीजु बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br>बयऊ॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br>सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br>करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br>तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br>अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br>जब लगि जिऔं रेख खँचाइ कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br>बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br>दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br>कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br><br> राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br>हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br>उदउ जौं सुत सहित करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br>भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br>बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br>पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br>मंगल सकल सोहाहिं सेवकाई। तौ घर रहहु कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br>तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br>आन उपाई॥दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br>जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br><br> पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br>जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br>गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br>धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br>पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br>कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br>सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br>सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br>दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br>रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br><br> आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br>चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br>सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br>उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br>समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br>रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br>निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br>रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br>दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br>सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br><br> सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br>सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br>करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु सुना न काऊ।।<br>तुम्हहि कौसिलाँ देब।तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br>मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br>सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br>देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br>सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br>दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br>सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br><br>निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br>जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br>जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br>सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br>मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br>बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br>सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br>तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br>दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br>तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br><br> भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br>जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br>सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br>तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br>अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br>थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br>राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br>जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br>दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br>चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br><br>रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br>सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br>तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br>राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br>पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br>तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br>लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br>रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br>दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br>सचिव भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br><br>के नेब॥19॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br>सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br>लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br>रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br>सोक बिबस कछु कहै नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br>करबि सवति सेवकाई॥बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br>अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br>आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br>दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br>बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br><br> अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br>सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br>बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥अस कस कहहु मानि मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br>रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br>देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br>तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br>ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥जेहिं राउर अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br>देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br>दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br>आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br><br> धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br>चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br>आयसु पालि जनम अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br>परिपाका॥बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br>अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख दीन्हा।।<br>नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br>सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br>जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br>दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु बासर नींद हृदयँ समाइ।<br>मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br><br> मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br>एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br>निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br>कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br>पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br>सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br>सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br>निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br>दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br>का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br><br> का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br>एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br>जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br>एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br>सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br>जामिनि॥एक पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br>कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं भुआल होहिं यह बात अलीहा।।<br>साँची॥सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br>भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br>परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।सपनेहुँ कबहुँ कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br><br>करब हित लागि॥21॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥ कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥ बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥ कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥ अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥ पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥ जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥ मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥ एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥ आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥ राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥ जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥ अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥ ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥ चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥ राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥ पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥ आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥ सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥ निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥ भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥ रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥ अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥ अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥ धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥ मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥ का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥ एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br>जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br>उछाहू॥बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br>केरी॥लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br>ताही॥भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br>जाना॥करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br>देहू॥कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br>देसू॥कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br>पारा॥दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br>राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br><br>राम॥49॥ अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br>होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br>काजू॥नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br>रूखे॥गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br>लेहू॥जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br>तुम्हारे॥जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br>सोई॥राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br>लोगू॥उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br>नसाई॥छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br>हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br>चालही॥जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br>तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br>भामिनी॥सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br>तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।<br>कूबरी॥50॥<br/poem>