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<poem>
श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
<center><font size=5>द्वितीय सोपानअयोध्या -काण्ड</font></center><br><br>
श्रीगणेशायनमः'''<br>श्रीजानकीवल्लभो विजयते<br>श्रीरामचरितमानस'''<br>द्वितीय सोपान<br>अयोध्या-काण्ड'''<br>श्लोक<br>यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके<br>भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।<br>सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा<br>शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्।।1।।<br><br>माम्॥1॥प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।<br>मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।।2।।<br><br>मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥<br>नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।<br><br>पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।3।।<br><br>रघुवंशनाथम्॥3॥ <br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।चारि॥<br>जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।बधाए॥<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।बारी॥<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।आई॥<br>मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।। २ ।। भाँती॥<br>कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।करतूती॥<br>सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।। ३।।निहारी॥<br>मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।बेली॥<br>राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।। ४।।राऊ॥<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।1।।<br><br>नरेसु॥1॥ एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>बिराजा॥सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>उछाहू॥नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>राखें॥तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>नाहीं॥मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।<br>तासू॥रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।३।।<br>कीन्हा॥श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।<br>उपदेसा॥नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>लेहू॥दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।2।।<br><br>जाइ॥2॥ कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>लायक॥सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>उदासी॥सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>सोही॥बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।२ ।।<br>नाई॥जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।<br>करहीं॥मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।३।। <br>पूजें॥अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।<br>तोरें॥मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>देहू॥दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।3।।<br><br> तुम्हार॥3॥ सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>बानी॥नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>समाजू॥मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>लाहू॥प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।२ ।।<br>माहीं॥पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ।। <br>पछिताऊ॥सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।३।।<br>भाए॥सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। <br>जाहीं॥भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।<br>अनुगामी॥दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।4।।<br><br> जुबराजु॥4॥ मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।। <br>बोलाए॥कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए। १ ।। <br>सुनाए॥जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२ ।।< br>टीका॥मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।अभिमत बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।।<br>पानी॥विनती बिनती सचिव करहि कर जोरी।जिअहु जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>करोरी॥जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।।<br>बारा॥नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।।<br>सुसाखा॥दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>सोइ॥5॥ हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>पानी॥औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>नाना॥चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>जाती॥मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।२ ।।<br>अभिषेका॥बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।।<br>बिताना॥सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।३।।<br>फेरा॥रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।।<br>बजारू॥पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>सेवा॥दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>लाग॥6॥ जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>कीन्हा॥बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।। १।। <br>काजा॥सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>बधावा॥राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।२।।<br>सुहाए॥पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।<br>अहहीं॥भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।३।।<br>केरी॥भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।<br>नाहीं॥रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।४।।<br>भाँती॥दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>बिलासु॥7॥ प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>पाए॥प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।। १।। <br>लागीं॥चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>रुरी॥आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।२।।<br>हँकारी॥पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।<br>बलिभागा॥जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।३।।<br>बरदानू॥गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।४।।<br>मृगसावकनयनीं॥दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>बिचारि॥8॥ तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>पठाए॥गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>माथा॥सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>सनमाने॥गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।<२।।br>जोरी॥सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>दमनू॥तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।३।।<br>नीती॥प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।<br>गेहू॥आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।४।।<br>सेवकाई॥दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>अवतंस॥9॥ बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>मुनिराऊ॥भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।। १।। <br>जुबराजू॥राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>काजू॥गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ।।२।।<br>भयऊ॥जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।।<br>लरिकाई॥करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।३।।<br>उछाहा॥बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।<br>अभिषेकू॥प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।४।।<br>कुटिलाई॥दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>चंद॥10॥ बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br>बखाना॥भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।। १।। <br>पावहिं॥हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br>लोगाई॥कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा।।२।।<br>हमारा॥कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता।।<br>चेता॥सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली।।३।।<br>कुचाली॥तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा।।<b>भावा॥सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं।।४।।<br>परहीं॥दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<b>रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br><br>सुरकाजु॥11॥ सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br>हिमराती॥देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br>खोरी॥बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br>प्रभाऊ॥जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।<br>लागी॥बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।<br>पोची॥ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।<br>बिभूती॥आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।<br>मोरी॥हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।<br>दुखदाई॥दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।<br><br>फेरि॥12॥ दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<br />बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>दाहू॥करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>राती॥देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।<br>भाँती॥भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।<br>रानी॥ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।<br>आँसू॥हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।<br>मोरें॥तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।<br>साँपिनि॥दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br> लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>सालु॥13॥ कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br />पाई॥रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<br />जुबराजू॥भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br />नाहिन॥देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br />छोभा॥पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br />हमारें॥नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br />चतुराई॥सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br />अरगानी॥पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br />तोरी॥दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br /> तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br />मुसुकानि॥14॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br />मोही॥सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br />होई॥जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br />सुहाई॥राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br />आली॥कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br />पिआरी॥मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br />देखी॥जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br />पुतोहू॥प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br />तोरें॥दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br /> हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br />सुनाउ॥15॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br />दूजी॥फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br />लागा॥कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br />माई॥हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br />राती॥करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br />दीन्हा॥कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br />रानी॥जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।<br />तुम्हारा॥तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br />हमारी॥दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br /> सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br />पतिआनि॥16॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br />मोही॥तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br />फाबी॥तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br />नाऊँ॥सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br />बोली॥प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br />बानी॥रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br />पिंरीते॥भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br />छारा॥जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br />बारी॥दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br /> मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br />सुभाउ॥17॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br />सँवारी॥पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br />रउरें॥सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br />कें॥सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br />जनाई॥राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br />देखी॥रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br />धराई॥यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br />नीका॥आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br />ओही॥दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br />प्रबोधु॥ कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br />बिरोधु॥18॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br />देवाई॥का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br />पहिचाना॥भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br />आजू॥खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br />हमारें॥जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br />सजाई॥रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br />बयऊ॥रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br />माखी॥जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br />उपाई॥दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br /> भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br />नेब॥19॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br />सुखानी॥तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br />चाँपी॥कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br />रानी॥फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।<br />मराली॥सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।<br />मोरी॥दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।<br />अपने॥काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।<br />काऊ॥दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।<br /> केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br />दीन्ह॥20॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br />सेवकाई॥अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br />चाही॥दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br />ठानी॥अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।<br />दूना॥जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।<br />परिपाका॥जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।<br />जामिनि॥पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।<br />साँची॥भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।<br />राऊ॥दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br /> कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br />लागि॥21॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br />टेई॥लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br />जैसें॥सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br />घोरी॥कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br />पाहीं॥दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br />छाती॥सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br />हुलासु॥भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br />टरई॥होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br />तें॥दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br /> काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br />पतिआहु॥22॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br />बखानी॥तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br />अधारा॥जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br />आली॥बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br />कैकेई॥बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br />केरी॥पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br />परिनामा॥कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br />बिगोई॥राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br />कोई॥दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br /> एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।<br />दरबार॥23॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।<br />जाहीं॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br />बानी॥फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br />बड़ाई॥को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br />जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br />हमहीं॥सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br />निबाहू॥अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br />दाहू॥को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br />चतुराई॥दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br /> गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br />सनेहँ॥24॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br />पाऊ॥सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।<br />ताकें॥सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br />बड़ाई॥सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br />मारे॥सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br />भयऊ॥भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br />नाना॥कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br />भाबी॥जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br />रिसानी॥छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br /> मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br />निहारई॥ दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br /> तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br />लेखई॥सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br /> कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br />कर॥25॥ अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />लीन्हा॥कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />देसू॥सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br />नारी॥जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br />चकोरू॥प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br />तोरें॥जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।<br />मोही॥बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br />गाता॥घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br />कुबेषू॥दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br /> भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br />फंद॥26॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br />बानी॥भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br />बधावा॥रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br />साजू॥दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br />बरतोरू॥ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br />रोई॥लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br />पढ़ाई॥जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br />अवगाहू॥कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br />मोरी॥दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br /> देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br />संदेहु॥27॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br />अहई॥थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।<br />सुभाऊ॥झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br />लेहू॥रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br />जाई॥नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br />गुंजा॥सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br />गाए॥तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br />रघुराई॥बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br />खोली॥दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br /> भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br />बाजु॥28॥  मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br />टीका॥मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br />मोरी॥तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br />बनबासी॥सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br />कोकू॥गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br />लावा॥बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br />तालू॥माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br />सोचन॥मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br />समूला॥अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।<br />नेईं॥दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br /> जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br />नास॥29॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br />माखा॥भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br />मोही॥जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br />सँभारे॥देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br />माहीं॥देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br />लेहू॥सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />चबेना॥सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br />राखा॥अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br />देई॥दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br /> सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br />कुठायँ॥30॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br />उघारी॥मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br />बनाई॥लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br />मोरा॥बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br />सोहाती॥प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br />हाँती॥मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br />साखी॥अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br />भ्राता॥सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br />बजाई॥दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br /> मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br />नृपनीति॥31॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br />काऊ॥मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br />छूछें॥रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br />जुबराजू॥एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br />मागा॥अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br />साँचा॥कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br />साधू॥तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br />संदेहू॥जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br />प्रतिकूला॥दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br /> जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।<br />अभिषेकु॥32॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br />दीना॥कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br />नाहीं॥समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br />आधीना॥सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br />परई॥कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br />माया॥देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br />रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br />पहिचाने॥जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br />साका॥दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br /> मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br />माहिं॥33॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br />बाढ़ी॥पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br />जोई॥दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br />प्रचारा॥ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br />अनुकूला॥लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br />नाची॥गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br />कुठारी॥मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br />मोही॥राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br />छाती॥दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br /> कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br />रघुनाथ॥34॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br />निपाता॥कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br />पानी॥पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br />देई॥जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br />कहेऊ॥दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br />गाला॥दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br />रौताई॥छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br />करहू॥तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br />बरनी॥दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br /> लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br />मोर॥35॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br />तोरें॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br />बामू॥सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br />प्रभुताई॥करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br />बड़ाई॥तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br />काऊ॥अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br />गोई॥जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br />बहोरी॥फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br />लागी॥दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br /> कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br />मसानु॥36॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br />बेहालू॥हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br />कोई॥उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br />उर॥भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br />बनाई॥बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br />द्वारा॥पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br />सायक॥मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br />जैसें॥तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br />उछाहू॥दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br /> जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br />बिसेषि॥37॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br />लागा॥जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br />पाई॥गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br />डेराहीं॥धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br />बसेरा॥पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br />कैकैई॥कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br />सुखाई॥सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br />परिहरेऊ॥सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br />छूछी॥दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br /> रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br />महीसु॥38॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br />आई॥चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br />रानी॥सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br />राऊ॥उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br />मारें॥समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br />टीका॥रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br />लेखा॥निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br />लेवाई॥रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br />बिलखाहीं॥दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br />कुसाजु॥ सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br />गजराजु॥39॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br />भुअंगू॥सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br />लेई॥करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।<br />काऊ॥तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br />महतारी॥मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br />निवारन॥सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br />सनेहू॥देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br />सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br />सँकोचू॥दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br /> सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br />कलेसु॥40॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br />अकुलानी॥जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br />समाना॥जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br />बीरू॥सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br />निठुराई॥मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br />निधानू॥बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br />बिभूषन॥सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br />अनुरागी॥तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br />संसारा॥दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br /> तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br />तोर॥41॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br />जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br />समाजा॥सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br />मागी॥तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br />माहीं॥अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br />देखी॥थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br />महतारी॥राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br />अपराधू॥जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br />सतिभाऊ॥दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br /> चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br />समान॥42॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />जनाई॥सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />जाना॥तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br />सुखदाता॥राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br />अहहू॥पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br />होई॥तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br />कीन्हे॥लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br />जैसे॥रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br />सुहाए॥दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br /> सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br />कीन्ह॥43॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br />उघारे॥सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br />निहारे॥लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br />पाई॥रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br />प्रबाहू॥सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br />बारा॥बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br />जाहीं॥सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br />मोरी॥आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br />जानी॥दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br /> बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br />सनेहु॥44॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br />जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br />होंही॥अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br />डोला॥रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br />अनुमानी॥देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br />बिचारी॥तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br />लरिकाई॥अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br />जनावा॥देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br />गाता॥दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br /> आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br />गात॥45॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br />जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br />जाकें॥आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br />रजाई॥बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br />लागी॥अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।<br />दीन्हा॥नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br />बीछी॥सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br />दवारी॥जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br />होई॥दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।<br /> मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br />बजाइ॥46॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br />गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br />धरेऊ॥निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br />चीखा॥कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br />आगी॥पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br />ठाटा॥सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br />ठाना॥सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br />दुराऊ॥निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br />भाई॥दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br /> का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br />खाइ॥47॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br />देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br />दीन्हा॥जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br />जनु॥एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br />सयाने॥सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br />बखानी॥एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br />रहहीं॥कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।<br />अलीहा॥सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br />प्रानपिआरे॥दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br /> सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br />प्रतिकूल॥48॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br />जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br />उछाहू॥बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br />केरी॥लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br />ताही॥भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br />जाना॥करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br />देहू॥कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br />देसू॥कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br />पारा॥दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br /> राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br />राम॥49॥ &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br />होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br />काजू॥नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br />रूखे॥गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br />लेहू॥जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br />तुम्हारे॥जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br />सोई॥राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br />लोगू॥उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br />नसाई॥छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br /> हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br />चालही॥ जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br /> तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br />भामिनी॥सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br /> तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।कूबरी॥50॥<br /poem>