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दोहे / बनज कुमार ‘बनज’

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|रचनाकार=बनज कुमार 'बनज'‘बनज’
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<poem>
शायद तुमने बाँध लिया है ख़ुद को छायाओं के भय से,
इस स्याही पीते जंगल में कोई चिन्गारी तो उछले ।
 
रहे शारदा शीश पर, दे मुझको वरदान।
गीत, गजल, दोहे लिखूँ, मधुर सुनाऊँ गान।
माँ मुझको कर वापसी, भूले बिसरे गीत,
बिना शब्द के ज़िन्दगी, कैसे हो अभिनीत।
 
'''कुछ और दोहे'''
दर्शन और अध्यात्म —
 
जाने कब ख़ाली करना पड़े मुझे मकान,
मैं समेट कर इसलिए रखता हूँ सामान।
प्रकृति —
बढ़ते हैं जिस ओर भी निगल रहे हैं गाँव,
कोई तो रोको जरा इन शहरों के पाँव।
 
शृंगार वर्णन —
 
पायल चुपके से कहे धीरे चल पाँव,
जाग जाए आज भी सारा गाँव।
 
पिता की मृत्यु के बाद —
 
बीच सफ़र से चल दिया ऐसे मेरा ख़्वाब,
आधी पढ़कर छोड़ दे जैसे कोई किताब।
</poem>
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