और ज़्यादा नहीं तो उसके जीते जी
मेरे साथ तुम्हारा भी तर्पण होता चले {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं प्लास्टिक के सस्ते मुखौटे सागिजगिजा चेहराआंखों में सीझती थकानबातें बिखरी तुम्हारीहर्फों तक टूटे अल्फाज़तुमसे मिलकर दिन गुजरा मेरासदियों सा आज इस मरी हुई धज मेंमेरे सामने तुम आए क्योंउठो खलनायक, मेरा सामना करोमैं तुमसे लड़ना चाहता हूं। इतनी नफरत मैंने तुमसे की हैजितना किया नहीं कभी किसी से प्यारइस ककड़ाई शक्ल में लौटेओ मेरे रक़ीबतुम्हीं तो होमेरे पागलपन के आखिरी गवाह मिले हो इतने सालों बादवह भी इस हाल मेंकहो, तुम्हारा क्या करूं। क्योंआखिर क्यों मैंने तुमसे इतनी नफरत कीकुछ याद नहींजो था इसकी वजह-एक दिन कहां गया कुछ याद नहींआकाशगंगा में खिला वह नीलकमलरहस्य था, रहस्य ही रहा मेरे लिए दिखते रहे मुझे तो सिर्फ तुम सामने खड़ी अभेद्य, अंतहीन दीवारजिसे लांघना भी मेरे लिए नामुमकिन था। फिर देखा एक दिन मैंनेतुम्हें दूर जाते हुएवैसे ही अंतहीन, अभेद्य, कद्दावर-जाते हुए मुझसे, उससे, सबसे दूर और फिर देखा खुद कोधीरे-धीरे खोते हुए उस धुंध मेंजहां से कभी कोई वापसी नहीं होती। ऐसे ही चुपचाप चलता हैसमय का भीषण चक्रवातदिलों को सुस्त, कदों को समतल करता हुआचेहरों पर चढ़ाता प्लास्टिक के मुखौटेजेहन पर दागता ऐसे-ऐसे घावजो न कभी भरते हैंन कभी दिखते हैं धुंध भरे आईनों में अपना चेहरा देख-देखकरअब मैं थक चुका हूंइतने साल से संजोकर रखीएक चमकती हुई नफरत ही थीखुद को कभी साफ-साफ देख पाने कीमेरी अकेली उम्मीद-तुम दिखे आज तो वह भी जाती रही। नहीं, कह दो कि यह कोई और हैतुम ऐसे नहीं दिख सकते-इतने छोटे और असहायउठो, मेरे सपनों के खलनायकउठो और मेरा सामना करो मेरे पागल प्यार की आखिरी निशानी-मौत से पहले एक बारमैं तुमसे लड़ना चाहता हूं। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} चलना चाहिए एक शाम दफ्तर से तुम लौटते होऔर पाते हो कि सभी जा चुके हैं अगल- बगल तेज घूमती रौशनियाँ हैं घरों पर छाई पीली धुंध के ऊपरअँधेरे आसमान में आखरी पंछीपरछाइयों की तरह वापस लौट रहे हैं तुम किसी से कुछ भी कहना चाहते होमगर पाते हो कि सभी जा चुके हैं तुम्हारे पास कोई गवाह कोई सुबूत है?आख़िर कैसे साबित करोगे तुमकि सबकुछ जैसा हो गया हैउसके जिम्मेदार तुम नहीं हो? निर्दोष होने के भावुक तर्कअपने फटे हुए ह्रदय का बयान-तुम सोचते हो यह सब तुम्हारे ही पास है? बिल्कुल खाली अंधियारी सीढ़ियों परदेर तक अपनी सांसों की आवाज सुनना...इस एहसास के साथ कि इतने करीब सेकिसी और की साँसें सुनने का वक्त अब जा चुका है दुनिया में अबतक हुई बेवफाइयों के सारे किस्सेएक-एक कर तुम्हारी मदद को आते हैंकैसी सनक मिजाजीकि उन्हें भी तुम पास फटकने नहीं देते आख़िर किसलियेकिस पाप के लिए तुम दण्डित हो-पूछते हो तुम और पाते हो किअभी-अभी यह सवाल किसी और ने भी पूछा है चौंको मतक्षितिज के दोनों छोरों के बीच तनीसवालों की यह एक धात्विक शहतीर हैजो थोड़ी-थोड़ी देर पर यूं हीहवाओं से बजती रहती है वन मोर चांस प्लीज-किसी चुम्बन की फरियाद की तरहतुम जीने के लिए एक और जिंदगी माँगते होऔर फिर बिना किसी आवाज केदेर तक धीरे-धीरे हँसते हो हँसते हैं तुम्हारे साथ गुजरे जमानों के अदीब नाभि से उठ कर कंठ में अटका धुआं निगलते हुएशायद उन्हीं को सुनाते हो तुम- सब चले गए फिर हमीं यहाँ क्यों हैंबहुत गहरे धंस गयी है रातहमे भी कहीँ चलना चाहिए {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} स्टेशन पर रात रात नहीं नींद नहीं सपने भी नहींन जाने कब ख़त्म हुआ इन्तजारठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचनामहोदय जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैंवह रास्ता बदलकर कहीँ और जा चुकी है हो जाता है, कभी-कभी ऐसा हो जाता है श्रीमानतकलीफ की तो इसमे कोई बात नहींयहाँ तो ऐसा भी होता है किघंटों-घंटों राह देखने के बाद आंख लग जाती है ठीक उसी वक्तजब ट्रेन स्टेशन पर पहुँचने वाली होती है सीटी की डूबती आवाज के साथएक अदभुत झरने का स्वप्न टूटता हैऔर आप गाड़ी का आखरी डिब्बासिग्नल पार करते देखते हैं सोच कर देखिए ज़राज्यादा दुखदायी यह रतजगा हैया कई रात जगाने वाली पांच मिनट की वह नींद और वह भी छोड़ियेइसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्तमगर न जाने को कोई जगह है ना रुकने की कोई वजह ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचनाट्रेनें इस तरफ या तो आती नहीं, या आती भी हैं तोकरीब से पटरी बदलकर कहीँ और चली जाती हैं या आप का इन्तजार वे ठीक तब करती हैंजब आप नींद में होते हैंया सिर्फ इतना कि आपके लिए वे बनी नहीं होतींफकत उनका रास्ताआपके रास्ते को काटता हुआ गुजर रहा होता है {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} रात जैसा दिन काले सलेटी आकाश के बीचो बीचकलौंछ कत्थई लाल अँधेरा फेंकताचाक जितना बड़ा कटे चुकन्दर जैसा सूरजगीले चिपचिपे ग्रह का बहुत लम्बा बैंगनी सियाह दिनदेख रहे हो तुम उसे यहाँ सेदेख रहा है वह तुम्हे वहाँ से रह गये तुम रह गये भाई इसी इत्मीनान में किबीच में कसे हैं इतने सारे प्रकाश वर्ष जान नहीं पाये तुमना ही तुम्हारे साथ खड़ा मैं-कब आया कब बीत गयाइस ग्रह पर भी बैंगनी सियाह दिनखीजते रहे यहाँ हम ठोंकते-रगड़ते अपना माथाखोजते रहे हबड़-धबड़मेज़ की दराज़ों में डिस्पिरिन-सेरिडॉनपता नहीं चला कि कब हुआ अपना भी सूरजचाक से बड़ा चुकन्दर सा कत्थई कलौंछमैंने कहा सुनते हो भाई, ओ दूरबीन वालेबचे हैं अब यहाँ माथा रगड़ते सिर्फ़ हम दो जनबाकी सब गिर गये कत्थई लाल अँधेरे मेंपता नहीं चला किचुपचाप आये एक और ग्रह के बोझ सेकब हुई पृथ्वी इतनी भारीकि कक्षा से टूट कर गिरी चली जा रही हैअनन्त अँधेरी रात मेंनीचे, नीचे.. .. और नीचे {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} शबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँ.... सितारों से उलझता जा रहा हूँशबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँ....एक झटके में कुछ लाख साल बढ गयी उम्रएक क्षण मे पूरी जिंदगी याद आ गयीस्वास्थ्य कैसा है, पूछा बुजुर्ग साथी नेफिर कहा, यह बात तो आपको मुझसे पूछनी चाहिऐ।देखता रहा मैं उनके चहरे में मानस पिता का चेहराफिर झेंपते हुए कहा, आप तो अटल हो पर्वत की तरह-जिस पर किसी का बस नही,उसी का बस आप पर चले तो चले।हाल मेरा ही पूछो,लहरों में थपेडे खाते हुए काबोले, यह तो चलते रहना है,जब तक जीवन हैफिर चुप हो गए यह सोचकर कि कहीं दुःखी तो नही कर रहे मुझे।एक साथी ने कहा कभी उधर भी आयियेमैने कहा,बारह साल से सोच रहा हूँ,चार छह दिन मिले तो कभी आऊंदिल्ली की तीखी धूप मे उन्होने पसीना पोंछासुरती होंठो मे दबाई और हिप्नोटिक आंखो से अपनीमेरे डूबते दिल को थामते से बोलेएक दिन,एक घंटे के लिए भी आइये,लेकिन आइये।फिर एक साथी ने बातों बातों में मुझे चम्पारन घुमा दियागंडक के पानी से लदी तराई वाला चम्पारनजहाँ हाथ भर खोदने से पानी निकल आता हैजहाँ दो सौ वर्ग किलोमीटर वाले जमींदार रहते हैंऔर जहाँ से भागते हैं हर साल हज़ारो लोगदेस कुदेस में खटकर जिंदगी चलाने।तेज़ रफ़्तार जिंदगी की गाड़ी का बम्फर पकड़े रस्ते की रगड़ खाता मैंठिठक कर देखता रहा दस मिनट का चम्पारनऔर अपने सामने खड़ा हंसता हुआ एक आदमीजो जिस जमीन पर खड़ा होता है वहीं पर हरियाली छा जाती हैमेरे मन के भीतर से कोई पूछता हैभाई, इन बारह वर्षों मे हम दोनो कहॉ से कहॉ पंहुचेकितना आगे बढ़ा आन्दोलन और कितनी आगे बढ़ी नौकरीबताने को ज्यादा कुछ है नहींइतिहास में कौन कब कहॉ पंहुचता है?क्या है पैमाना,जिस पर नापा जाय कि कौन कहॉ पंहुचा?पैमाने को तय करने वाला भी है कौन ?फिर सोचता हूँ,किन चीजों से नापी जायेगी मेरी उम्रकोई ओहदा,कुछ पैसे,कोई गाड़ी,कोई घर, कुछ मंहगे समानया फिर कुछ साल जो बहुत घरों में बहुत लोगों का सगा होकर गुजरे?बहुत तकलीफदेह है रैली के बाद घर लौटना-रिश्तों के दो अर्थों मे होकर दो फाड़।शबे फुरकत बहुत घबरा रहा हूँसितारों से उलझता जा रहा हूँ...