{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह= लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,
पछीट रही है शताब्दिशें सेधूप के तार पर सुखा रही है,वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच धूप और हवा सेवंचित घुप्प गुफा मेंकितना आटा गूंध रही है?गूंध रही है मानों सेर आटाअसंख्य रोटियाँसूरज की पीठ पर पका रही है,
कब एक औरतदिशाओं के सूप में खेतों कोफटक रही हैएक औरतवक़्त की नदी मेंदोपहर के पत्थर से कपड़े पछीट शताब्दियाँ हो गईंएड़ी घिस रही है ,
पछीट एक औरत अनंत पृथ्वी कोअपने स्तनों में समेटेदूध के झरने बहा रही है शताब्दियों ,एक औरत अपने सिर परघास का गट्ठर रखेकब से धरती कोनापती ही जा रही है,
धूप एक औरत अँधेरे मेंखर्राटे भरते हुए आदमी के तार पर सुखा रही पासनिर्वसर जागतीशताब्दियों से सोयी है ,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में कितना आटा गूँध रही है? गूँध रही है मनों सेर आटा असंख्य रोटियाँ सूरज की पीठ पर पका रही है एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है एक औरत वक्त की नदी में दोपहर के पत्थर से शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे दूध के झरने बहा रही है एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से धड़ धरती को नापती ही जा रही है एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।हैं.</poem>