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| ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं | | ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं |
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− | ये कौन-सी महिलाएं हैं जिनके लिए गहना नहीं हया | + | ये कौन-सी महिलाएँ हैं जिनके लिए गहना नहीं हया |
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| ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा | | ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा |
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− | ये कहां खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया | + | ये कहाँ खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया |
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| इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है | | इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है |
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− | ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर | + | ये स्त्रियाँ हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर |
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| ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का | | ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का |
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| पता किया जाए. | | पता किया जाए. |
− |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
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− | काग़ज़
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− | -------------------------------------------------
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− | चारों तरफ़ बिखरे हैं काग़ज़
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− | एक काग़ज़ पर है किसी ज़माने का गीत
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− | एक पर घोड़ा, थोड़ी हरी घास
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− | एक पर प्रेम
| |
− | एक काग़ज़ पर नामकरण का न्यौता था
| |
− | एक पर शोक
| |
− | एक पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था क़त्ल
| |
− | एक ऐसी हालत में था कि
| |
− | उस पर लिखा पढ़ा नहीं जा सकता
| |
− | एक पर फ़ोन नंबर लिखे थे
| |
− | पर उनके नाम नहीं थे
| |
− | एक ठसाठस भरा था शब्दों से
| |
− | एक पर पोंकती हुई क़लम के धब्बे थे
| |
− | एक पर उंगलियों की मैल
| |
− | एक ने अब भी अपनी तहों में समोसे की गंध दाब रखी थी
| |
− | एक काग़ज़ को तहकर किसी ने हवाई जहाज़ बनाया था
| |
− | एक नाव बनने के इंतज़ार में था
| |
− | एक अपने पीलेपन से मूल्यवान था
| |
− | एक अपनी सफ़ेदी से
| |
− | एक को हरा पत्ता कहा जाता था
| |
− | एक काग़ज़ बार-बार उठकर आता
| |
− | चाहते हुए कि उसके हाशिए पर कुछ लिखा जाए
| |
− | एक काग़ज़ कल आएगा
| |
− | और इन सबके बीच रहने लगेगा
| |
− | और इनमें कभी झगड़ा नहीं होगा
| |
− | .............................................................................
| |
− |
| |
− |
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− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
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− |
| |
− |
| |
− | असंबद्ध
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− | ---------------------
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− | कितनी ही पीड़ाएं हैं
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− | जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
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− | ऐसी भी होती है स्थिरता
| |
− | जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं
| |
− |
| |
− | ओस से निकलती है सुबह
| |
− | मन को गीला करने की जि़म्मेदारी उस पर है
| |
− | शाम झांकती है बारिश से
| |
− | बचे-खुचे को भिगो जाती है
| |
− |
| |
− | धूप धीरे-धीरे जमा होती है
| |
− | क़मीज़ और पीठ के बीच की जगह में
| |
− | रह-रहकर झुलसाती है
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− |
| |
− | माथा चूमना
| |
− | किसी की आत्मा चूमने जैसा है
| |
− | कौन देख पाता है
| |
− | आत्मा के गालों को सुर्ख़ होते
| |
− |
| |
− | दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
| |
− | एक ख़राब किस्म की कठोरता है
| |
− | ...................................................................................;
| |
− |
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− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
| |
− |
| |
− | जिसके पीछे पड़े कुत्ते
| |
− | ----------------------------------
| |
− | उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी झूल रही थी
| |
− | कपड़े गंदे थे, हाथ में थैली थी...
| |
− | उसके रूप का वर्णन कई बार
| |
− | कहानियों, कविताओं, लेखों, ऑफ़बीट ख़बरों में हो चुका है
| |
− | जिनके आधार पर
| |
− | वह दीन-हीन किस्म का पगलेट लग रहा था
| |
− | और लटपट-लटपट चल रहा था
| |
− | और शायद काम के बाद घर लौट रहा था
| |
− | जिस सड़क पर वह चल रहा था
| |
− | उस पर और भी लोग थे
| |
− | रफ्तार की क्रांति करते स्कूटर, बाइक्स
| |
− | और तेज संगीत बाहर फेंकती कारें थीं
| |
− | सामने रोशनी से भीगा संचार क्रांति का शो-रूम था
| |
− | बगल में सूचना क्रांति करता नीमअंधेरे में डूबा अखबार भवन
| |
− | बावजूद उस सड़क पर कोई क्रांति नहीं थी
| |
− | गड्ढे थे, कीचड़ था, गिट्टियां और रेत थीं
| |
− | इतनी सारी चीजें थीं पर किसी का ध्यान
| |
− | उस पर नहीं था सिवाय वहां के कुत्तों के
| |
− |
| |
− | वे उस पर क्यों भौंके
| |
− | क्यों उस पर देर तक भौंकते रहे
| |
− | क्यों देर तक भौंककर उसे आगे तक खदेड़ आए
| |
− | क्यों उसकी लटपट चाल की रफ्तार को बढ़ा दिया उन्होंने
| |
− | क्यों चुपचाप अपने रास्ते जा रहे एक आदमी को झल्ला दिया
| |
− | जिसमें संतों जैसी निर्बलता, गरीबों जैसी निरीहता
| |
− | ईश्वर जैसी निस्पृहता और शराबियों जैसी लोच थी
| |
− | किसी का नुकसान करने की क्षमता रखने वालों का
| |
− | एकादश बनाया जाए तो जिसे
| |
− | सब्स्टीट्यूट जैसा भी न रखना चाहे कोई
| |
− | ऐसे उस बेकार के आदमी पर क्यों भौंके कुत्ते
| |
− |
| |
− | कुत्तों का भौंकना बहुत साधारण घटना है
| |
− | वे कभी और किसी भी समय भौंक सकते हैं
| |
− | जो घरों में बंधे होते हैं दो वक्त का खाना पाते हैं
| |
− | और जिन्हें शाम को बाकायदा पॉटी कराने के लिए
| |
− | सड़क या पार्क में घुमाया जाता है
| |
− | भौंककर वफादारी जताने की उनकी बेशुमार गाथाएं हैं
| |
− | लेकिन जिनका कोई मालिक नहीं होता
| |
− | उनका वफादारी से क्या रिश्ता
| |
− | जो पलते ही हैं सड़क पर
| |
− | वे कुत्ते आखिर क्या जाहिर करने के लिए भौंकते हैं
| |
− | ये उनकी मौज है या
| |
− | अपनी धुन में जा रहे किसी की धुन से उन्हें रश्क है
| |
− | वे कोई पुराना बदला चुकाना चाहते हैं या
| |
− | टपोरियों की तरह सिर्फ बोंबाबोंब करते हैं
| |
− |
| |
− | ये माना मैंने कि
| |
− | एक आदमी अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता
| |
− | वह अपने बदन को सजाकर नहीं रख सकता
| |
− | कि उसका हवास उससे बारहा दगा करता है
| |
− | लेकिन यह ऐसा तो कोई दोष नहीं
| |
− | प्यारे कुत्तो
| |
− | कि तुम उनके पीछे पड़ जाओ
| |
− | और भौंकते-भौंकते अंतरिक्ष तक खदेड़ आओ
| |
− | आखिर कौन देता है तुम्हें यह इल्म
| |
− | कि किस पर भौंका जाए और
| |
− | किससे राजा बेटा की तरह शेक हैंड किया जाए
| |
− | जो अपने हुलिए से इस दुनिया की सुंदरता को नहीं बढ़ा पाते
| |
− | ऐसों से किस जन्म का बैर है भाई
| |
− | यह भौंकने की भूख है या तिरस्कार की प्यास
| |
− | या यह खौफ कि सड़क का कोई आदमी
| |
− | तुम्हारी सड़क से अपना हिस्सा न लूट ले जाए
| |
− |
| |
− | जिसके पीछे पड़े कुत्ते
| |
− | उसे तो कौम ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया था
| |
− | उसे दो फलांग और छोड़ आना किसकी सुरक्षा है
| |
− |
| |
− | उसके हाथ में थैली थी
| |
− | जिसमें घरवालों के लिए लिया होगा सामान
| |
− | वह सोच रहा होगा अगले दिन की मजदूरी के बारे में
| |
− | किसी खामख्याली में उससे पड़ गया होगा एक कदम गलत
| |
− | और तुम सब टूट पड़े उस पर बेतहाशा
| |
− | जिस पर व्यस्त सड़क का कोई आदमी ध्यान नहीं देता
| |
− | फिर भी हमारे वक्त के नियंताओं के निशाने पर
| |
− | रहता है जो हर वक्त
| |
− | कुत्तो, तुम भी उस पर ध्यान देते हो इतना
| |
− | कि वह उसे निपट शर्मिंदगी से भिड़ा दे
| |
− |
| |
− | और यह अहसास ही अपने आप में कर देता है कितना निराश
| |
− | कि जिसके पीछे पड़ते हैं कुत्ते
| |
− | वह उसी लायक होता है
| |
− | ........................................................................................;;
| |
− |
| |
− | {{KKGlobal}}
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− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
| |
− |
| |
− | डेटलाइन पानीपत
| |
− | ---- --------------------------------------------
| |
− | वाटरलू पर लिखी गई हैं कई कविताएं
| |
− | पानीपत पर भी लिखी गई होंगी
| |
− | कार्ल सैंडबर्ग ने तो एक कविता में
| |
− | घास से ढांप दिया था युद्ध का मैदान
| |
− | यहां घास नहीं है, यक़ीनन कार्ल सैंडबर्ग भी नहीं
| |
− |
| |
− | किसी न किसी को तो दुख होगा इस बात पर
| |
− | कुछ युद्ध याद रखे जाते हैं लंबे समय तक
| |
− | कई उत्सव भुला दिए जाते हैं अगली सुबह
| |
− | मुझे पता नहीं
| |
− | पुरातत्ववेत्ताओं को इसमें कोई रुचि होगी
| |
− | कि खोदा जाए यहां का कोई टीला
| |
− | किसी कंकाल को ढूंढ़ा जाए और पूछा जाए जबरन
| |
− | तुम्हारे जमाने में घी कितने पैसे किलो था
| |
− | कितने में मिल जाती थी एक तेजधार तलवार
| |
− |
| |
− | कुछ लड़ाइयां दिखती नहीं
| |
− | कुछ लोग होते हैं आसपास पर दिखते नहीं
| |
− | कुछ हथियारों में होती ही नहीं धार
| |
− | कुछ लोग शक्ल से ही बेहद दब्बू नजर आते हैं
| |
− | जो लोग मार रहे थे उन्हें नहीं दिखते थे मरने वाले
| |
− | हुकुम की पट्टियां थीं चारों ओर निगल जाती हैं रोशनी को
| |
− |
| |
− | युद्ध के लिए अब जरूरी नहीं रहे मैदान
| |
− | गली, नुक्कड़ और मुहल्लों का विस्तार हो गया है
| |
− | कोई अचरज नहीं
| |
− | बिल्डिंग के नीचे लोग घूम रहे हों लेकर हथियार
| |
− | कोई अचरज नहीं
| |
− | दरवाजा तोड़कर घर में घुस आएं लोग
| |
− |
| |
− | कुछ लोग हैं जो जिए जाते हैं
| |
− | उन्हें नहीं पता होता जिए जाने का मतलब
| |
− | कुछ लोग हैं जो बिल्कुल नहीं जानते
| |
− | एक इंसान के लिए मौत का मतलब
| |
− |
| |
− | घास नहीं ढांप सकती इस मैदान को
| |
− | घास भी जानती है
| |
− | हरियाली पानी से आती है, खून से नहीं
| |
− |
| |
− | युद्ध का मैदान अब पर्यटनस्थल है
| |
− | कुछ लोग घर से बनाकर लाते हैं खाना
| |
− | यहां अखबारों पर रख खाते हैं
| |
− | एक-दूसरे के पीछे दौड़ते हैं बॉल को ठोकर मारते
| |
− | अंताक्षरी गाते-गाते हंसने लगते हैं
| |
− |
| |
− | कोई चीख किसी को सुनाई नहीं देती
| |
− |
| |
− | बच्चे यहां झूला झूल रहे हैं
| |
− | वे देख लेंगे जमीन के नीचे झुककर एक बार
| |
− | यकीनन बीमार पड़ जाएंगे
| |
− | .........................................................................
| |
− |
| |
− | {{KKGlobal}}
| |
− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
| |
− |
| |
− |
| |
− | इतना तो नहीं
| |
− | ---------------------------
| |
− | मैं इतना तो नहीं चला कि
| |
− | मेरे जूते फट जाएं
| |
− |
| |
− | मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गांव तक
| |
− | मैं चंद्रगुप्त अशोक खुसरो और रजिया से ही मिल पाया
| |
− | मेरे जूतों के निशान
| |
− | डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैं
| |
− | अभी कितनी जगह जाना था मुझे
| |
− | अभी कितनों से मिलना था
| |
− | इतना तो नहीं चला कि
| |
− | मेरे जूते फट जाएं
| |
− |
| |
− | मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थे
| |
− | जो जूते तुमने दिए, उनने मुंह खोल दिया इतनी जल्दी
| |
− | दुकानदार!
| |
− | यह कैसी दगाबाजी है
| |
− |
| |
− | मैं इस सड़क पर पैदल हूं और
| |
− | खुद को अकेला पाता हूं
| |
− | अभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़
| |
− | और जो मिलेंगे मुझसे
| |
− | उनसे क्या कहूंगा
| |
− | कि मैं ऐसी सदी में हूं
| |
− | जहां दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलता
| |
− | जहां तुम्हारे युगों से आसान है व्यापार
| |
− | जहां यूनान का पसीना टपकता है मगध में
| |
− | और पलक झपकते सोना बन जाता है
| |
− | जहां गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानी
| |
− | उस सदी में ऐसा जूता नहीं
| |
− | जो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुत
| |
− | कि अब साफ दिखाने वाले चश्मे बनते हैं
| |
− | फिर भी कितना मुश्किल है
| |
− | किसी की आंखों का जल देखना
| |
− | और छल देखना
| |
− | कि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता दे
| |
− | ऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया
| |
− |
| |
− | इस सदी में कम से कम मिल गए जूते
| |
− | अगली सदी में ऐसा होगा कि
| |
− | दुकानदार दाम भी ले ले
| |
− | और जूते भी न दे?
| |
− |
| |
− | फट गए जूतों के साथ एक आदमी
| |
− | बीच सड़क पैदल
| |
− | कितनी जल्दी बदल जाता है एक बुत में
| |
− |
| |
− | कोई मुझसे न पूछे
| |
− | मैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूं
| |
− |
| |
− | इस लंबी सड़क पर
| |
− | कदम-कदम पर छलका है खून
| |
− | जिसमें गीलापन नहीं
| |
− | जो गल्ले पर बैठे सेठ और केबिन में बैठे मैनेजर
| |
− | के दिल की तरह काला है
| |
− | जिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकता
| |
− | जिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुए
| |
− | यहां कहां मिलेगा कोई मोची
| |
− | जो चार कीलें ही मार दे
| |
− |
| |
− | कपड़े जो मैंने पहने हैं
| |
− | ये मेरे भीतर को नहीं ढंक सकते
| |
− | चमक जो मेरी आंखों में है
| |
− | उस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुंचती
| |
− | पसीना जो बाहर निकलता है
| |
− | भीतर वह खून है
| |
− | जूते जो पहने हैं मैंने
| |
− | असल में वह व्यापार है
| |
− |
| |
− | अभी अकबर से मिलना था मुझे
| |
− | और कहना था
| |
− | कोई रोग हो तो अपने ही जमाने के हकीम को दिखाना
| |
− | इस सदी में मत आना
| |
− | यहां खडि़ए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट
| |
− |
| |
− | मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट से मिलने जाना है
| |
− | जिसके बारे में बच्चे पढ़ेंगे स्कूलों में
| |
− | मैं अपनी सदी का राजदूत
| |
− | कैसे बैठूंगा उसके दरबार में
| |
− | कैसे बताऊंगा ठगी की इस सदी के बारे में
| |
− | जहां वह भेस बदलकर आएगा फिर पछताएगा
| |
− | मैं कैसे कहूंगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास से
| |
− | कि संभलकर जाना
| |
− | आगे बहुत बड़े ठग खड़े हैं
| |
− | तुम्हें उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर
| |
− |
| |
− | मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूं
| |
− | इन पथरीली सड़कों पर
| |
− | मैं एक मामूली, बहुत मामूली इंसान हूं
| |
− | इंसानियत के हक में खामोश
| |
− | मैं एक सजायाफ्ता कवि हूं
| |
− | अबोध होने का दोषी
| |
− | चौबीसों घंटे फांसी के तख्त पर खड़ा
| |
− | एक वस्तु हूं
| |
− | एक खोई हुई चीख
| |
− | मजमे में बदल गया एक रुदन हूं
| |
− | मेरे फटे जूतों पर न हंसा जाए
| |
− | मैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूं
| |
− | इसे प्रार्थना भले समझ लें
| |
− | बिल्कुल
| |
− | समर्पण का संकेत नहीं
| |
− | ..............................................................
| |
− |
| |
− |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
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− |
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− | नश्तर
| |
− | (मराठी कवि स्व. भुजंग मेश्राम के लिए)
| |
− | ------------------------------------------------------------------------
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− | पीड़ाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है और दुख का निजीकरण
| |
− | दर्द सीने में होता है तो महसूस होता है दिमाग में
| |
− | दिमाग से उतरता है तो सनसनाने लगता है शरीर
| |
− | प्रेम के मकबरे जो बनाए गए हैं वहां बैठ प्रेम की इजाजत नहीं
| |
− | पुरातत्वविदों का हुनर वहां बौखलाया है
| |
− | रेडियोकार्बन व्यस्त हैं उम्रों की शुमारी में
| |
− | सभ्यताओं ने इतिहास को कांख में चांप रखा है
| |
− | आने वाले दिनों के भले-बुरेपन पर बहस तो होती ही है
| |
− | मरे हुए दिनों की शक्लोसूरत पर दंगल है
| |
− | तीन हजार साल पहले की घटना तय करेगी
| |
− | किसे हक है यह जमीन और किसके तर्क बेमानी हैं
| |
− | कौन मजबूर है कौन गाफिल
| |
− | किसने युद्ध लड़ा आकाश में कौन मरा मुंबै में
| |
− | बरसों सोच किसने मुंह से निकाले कुछ लफ्ज
| |
− | एक साथ एक अरब लोगों की रुलाहट बाद उसके
| |
− | कानों पर वह कौन-सी जूं है जिसे बेडि़यां बंधीं
| |
− | किन किसानों ने कीं खुदकुशियां
| |
− | वीटी की एक इमारत ने किया लोगों को रातोरात खुशहाल
| |
− | कितने कंगाल हुए भटक गए
| |
− | हरे पेड़ों की तरह जला दिए गए लोग
| |
− | जबरन माथे पर खोदे गए कुछ चिह्न
| |
− | तुलसी के पौधों पर लटके बेरहम सांपों की फुफकार
| |
− | लाचार घासों को डसने का शगल
| |
− | इस तरफ कुछ लोग आए हैं जो बड़े प्रतीकों-बिंबों में बात करते हैं
| |
− | इसकी मजबूरी और मतलब
| |
− | मालूम नहीं पड़ता
| |
− | बताओ, दिल पर नहीं चलेंगे नश्तर तो कहां चलेंगे
| |
− | ...........................................................................
| |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | {{KKGlobal}}
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| |
− | |रचनाकार=गीत चतुर्वेदी
| |
− | }}
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− |
| |
− | सुब्हान अल्लाह
| |
− | ------------------------------------------
| |
− | रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं
| |
− | सुबह उठकर हाथ-मुंह धोने से पहले ही भूल जाते हैं
| |
− | हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करती
| |
− | हम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आते
| |
− | हमारी गफलत की अब उम्र होती जा रही है
| |
− | हम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैं
| |
− | हम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं
| |
− | हमारे भीतर का बुद्ध दगाबाज होता जाता है
| |
− | मद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोली
| |
− | जब पता चलता है
| |
− | शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी है
| |
− | हमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती है
| |
− | वे कौन-सी चीजें हैं, जिनने हमें नजरबंद कर लिया है
| |
− |
| |
− | हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैं
| |
− | अंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है
| |
− |
| |
− | हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरी
| |
− | हमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहट
| |
− | पानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीद
| |
− | हम सबके पैदा होने का तरीका एक ही है
| |
− | हम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहीं
| |
− | कौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग से
| |
− | क्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है?
| |
− |
| |
− | अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों में
| |
− | होता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तट
| |
− | समुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंच
| |
− | या घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलग
| |
− | जिसकी बत्तियां बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से
| |
− |
| |
− | हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी
| |
− | हिस्से में साध सकते हैं संपर्क
| |
− | तुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा
| |
− |
| |
− | कुछ लोगों को शौक है
| |
− | बार-बार इतिहास में जाने का
| |
− | दूध और दही की नदियों में तैरने का
| |
− | उन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैं
| |
− | वे हमारी पशुता पर खीझते हैं
| |
− | उन्हें बता दूं ये बेबसी
| |
− | हमारे लिए सिर्फ गोलियां बनी हैं
| |
− | बंदूक की
| |
− | और दवाओं की
| |
− |
| |
− | फिर भी वह कौन-सी खुशी है जो हमारे भीतर है अभी भी
| |
− | कि हर शाम हम मुस्कराते हैं
| |
− | अपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाजा बंद कर सो जाते हैं
| |
− |
| |
− | कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वाले
| |
− | मॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुख
| |
− | चिता
| |
पता किया जाए.