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तुम्हारी वह करुणा की कोर,
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मुझे मधुमय पीडा़ में बोर;
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झटक जाता था पागल वात
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धूलि में तुहिन कणों के हार;
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तभी तुम आये थे इस पार!
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गये तब से कितने युग बीत
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हुए कितने दीपक निर्वाण!
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नहीं पर मैंने पाया सीख
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तुम्हारा सा मनमोहन गान।
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बिछलते थे कर बारम्बार,
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तुम्हें तब आता था करुणेश!
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नहीं अब गाया जाता देव!
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थकी अँगुली हैं ढी़ले तार
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विश्ववीणा में अपनी आज
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मिला लो यह अस्फुट झंकार!
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22:22, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

निशा की, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल;

बिछाती थी सपनों के जाल
तुम्हारी वह करुणा की कोर,
गई वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीडा़ में बोर;

झटक जाता था पागल वात
धूलि में तुहिन कणों के हार;
सिखाने जीवन का संगीत
तभी तुम आये थे इस पार!

गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण!
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान।

भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,
तुम्हें तब आता था करुणेश!
उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!

नहीं अब गाया जाता देव!
थकी अँगुली हैं ढी़ले तार
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला लो यह अस्फुट झंकार!