|
|
पंक्ति 8: |
पंक्ति 8: |
| {{KKCatKavita}} | | {{KKCatKavita}} |
| <poem> | | <poem> |
− | सुनो प्रियतम
| + | आकर तो देखो मेरे प्राणपति |
− | मेरी आँखों का बरसना देख कर
| + | आज कितनी भयावह लगती है |
− | सावन ने बरसना छोड़ दिया है
| + | पहाड़ की हँसी |
− | | + | कि आकाश हो गया है सुरसा का मुँह |
− | यही कारण है कि
| + | यह इंजोरिया, जिसके हो दाँत |
− | नहीं बरसते हैं अब
| + | नदी के दोनों किनारे |
− | सावन के ये मेघ।
| + | जैसे, इसकी दो बाँहे |
− | सूखा ही रहता है यह पूरा सावन
| + | लगते हैं |
− | और यह जो कभी-कभी
| + | सब मिल कर मुझे खा जायेंगे। |
− | चाँद छिप जाता है मेघ से
| + | यह वही |
− | जानते हो प्रियतम
| + | गहराइयों और ऊँचाईयों वाला |
− | यह क्या है ?
| + | जेठोर का पहाड़ है |
− | यह मेरी आँखों के बहते काजल हैं
| + | जो तुम्हारे साथ रहने पर अपने पंख पसार |
− | और मेरे ही बिखरे केश
| + | उन पर चढ़ा घुमाता था मुझे |
− | अगर मेघ होते
| + | और आज उसी पहाड़ को लगता है |
− | तो बरसते नहीं ?
| + | हजारों-हजार हाथ निकल आये हैं |
− | लाचारी
| + | और नदी किनारे के सभी बाँस |
− | तुम्हें क्या मालूम मेरे प्रियतम
| + | उसके हाथों में बन गये हैं भालों की तरह |
− | घर में सबके सो जाने पर
| + | हवाओं में करचियाँ |
− | डरती-छिपती ओहार और कोन्टा से होती
| + | नागों की तरह फुंफकारती हैं |
− | सबकी आँखों से अपने को बचाती
| + | लगता है |
− | गाँव से कोस भर चल कर
| + | फनवाले हजारों नाग के भाले लिए |
− | इतनी दूर यहाँ आई हूँ मैं।
| + | पहाड़ दौड़े चला आ रहा है |
− | किसके लिए आई हूँ
| + | ऐसे में तुम नहीं हो तो मैं चाहती हूँ |
− | तुम्हारे लिए ही न !
| + | कि यह आकाश उलट जाए और मैं |
− | | + | इसकी गहराई में डूब कर मर जाऊँ। |
− | कि मेरे आते ही तुम बज उठोगे
| + | |
− | बाँसवन की सिसकारी की तरह
| + | |
− | और मुझे देखते ही दौड़ पड़ोगे
| + | |
− | दोनों हाथ फैलाए, समेट लोगे मुझे
| + | |
− | अपनी दोनों बाँहों में हमेशा-हमेशा के लिए।
| + | |
− | | + | |
− | मगर यह सब
| + | |
− | कुछ भी न हुआ
| + | |
− | सूखे ही रह गये अधर,
| + | |
− | प्यासा ही रहा मन।
| + | |
− | | + | |
− | मेरी इच्छाओं पर पानी फेरने वाले मेरे मीत
| + | |
− | आज यह विश्वास क्यों दम तोड़ रहा है कि
| + | |
− | प्रत्येक महीना की पूर्णिमा की रात में हम दोनों
| + | |
− | रात्रि की सुनसान खाली बेला में
| + | |
− | इसी पीपल वृक्ष के नीचे
| + | |
− | एक-दो सालों से नहीं
| + | |
− | जाने कितने ही सालों से
| + | |
− | क्षण-क्षण मिलते रहे हैं।
| + | |
− | | + | |
− | क्या हुआ जो तुम्हारे कहने पर भी
| + | |
− | स्त्री होने की लाचारी के कारण ही
| + | |
− | हाँ, कहने के बाद भी न आ सकी
| + | |
− | प्रियतम, क्या तुम नहीं जानते हो
| + | |
− | नारी का पूरा जीवन ही
| + | |
− | मर्द के हाथों में गिरवी रखा होता है
| + | |
− | कौमार्य में पिता, ब्याहने पर पुरुष
| + | |
− | बुढ़ापे में पुत्र
| + | |
− | आखिर परम्परा के इस बन्धन को कैसे तोड़ पाती ?
| + | |
− | | + | |
− | अगर यह हिम्मत मैं क्षण में ही नहीं जुटा पाई
| + | |
− | तो इसी में मेरे प्यार !
| + | |
− | तुमने मुझे झुट्टी कैसे मान लिया।
| + | |
− | हाँ, मैं नही आ पाई लेकिन तुम भी तो
| + | |
− | कितने ही दिन इसी तरह
| + | |
− | कहकर भी नहीं आये हो
| + | |
− | तो क्या हो गया अगर आज मैं ही न आ सकी।
| + | |
− | कि बस इतनी-सी बात के लिए
| + | |
− | तुम रूठ गये हो ।
| + | |
− | | + | |
− | तो आओ दण्ड दो मुझको
| + | |
− | मैं तुम्हारी सारी मनमानियाँ मानने को तैयार हूँ।
| + | |
− | | + | |
− | लेकिन इस तरह मुझको न सताओ
| + | |
− | न तड़पाओ
| + | |
− | रिस-रिस कर मारो नही
| + | |
− | मुझको रुलाओ नही ।
| + | |
− | प्रेमोन्माद
| + | |
− | यह मैं मानती हूँ कि
| + | |
− | प्रेम घना होने पर ऐसा ही होता है,
| + | |
− | व्यक्ति ज्यादा मान चाहता है
| + | |
− | लेकिन यह तो कहो प्रिये
| + | |
− | क्या यह चाह, यह तड़प, यह बदहाली
| + | |
− | तुमसे मुझमें कम है ?
| + | |
− | | + | |
− | तब इस तरह से
| + | |
− | मेरी परीक्षा लेने का क्या अर्थ ?
| + | |
− | | + | |
− | लेकिन, तब भी तुम्हारी ही
| + | |
− | सचमुच में तुम्हारी ही बात रखने के लिए
| + | |
− | मैं एक अकेली लड़की
| + | |
− | रात की इस सुनसान निर्जन बेला में
| + | |
− | चन्दन नदी पार कर
| + | |
− | डर, लाज और भय को कांेची में समेट कर
| + | |
− | इस पीपल वृक्ष के समीप आ गई हूँ
| + | |
− | | + | |
− | क्या कहूँ प्रियतम
| + | |
− | नदी के कोस भर फैले बालू | + | |
− | उसी तरह उमताई मैं पार कर गई
| + | |
− | जैसे हिरण अपनी कस्तूरी गंध से मतायी
| + | |
− | बाघ के आगे से निकल जाए।
| + | |
− | | + | |
− | मैं अपना हाल क्या सुनाऊँ प्रियतम
| + | |
− | चन्दन नदी के कछार पर पैर को रखते ही
| + | |
− | लगा कि तुम बीच नदी में
| + | |
− | पहले की तरह खड़े हो मेरी प्रतीक्षा में।
| + | |
− | | + | |
− | तेज चलती
| + | |
− | एक, दो, तीन डेगों से ही
| + | |
− | जब उस जगह पहुँची
| + | |
− | तो हाहाकार कर उठे मेरे प्राण
| + | |
− | पूरी देह एकबारगी ही सिहर गई
| + | |
− | ऐसा लगा कि पूस की रात में किसी ने
| + | |
− | बर्फीले पानी में धकेल दिया हो।
| + | |
− | | + | |
− | लेकिन, कहीं कुछ नहीं था
| + | |
− | तुम तो खैर नहीं ही थे प्रियतम
| + | |
− | पानी पर बस एक चांद था
| + | |
− | और थी उसकी चांदनी
| + | |
− | जो और कुछ भी नहीं
| + | |
− | मेरे ही गुमसुम उदास आँसू से भीगे
| + | |
− | मुँह की छाया भर थी।
| + | |
− | | + | |
− | मन करता था
| + | |
− | उसी जगह से लौट आऊँ
| + | |
− | लेकिन लाचार
| + | |
− | मन ही क्या करता
| + | |
− | जब पाँव ही नहीं मुड़े
| + | |
− | नहीं लौट सकी मैं
| + | |
− | नहीं लौट पाई
| + | |
− | | + | |
− | तुमसे मिलने की आकांक्षा
| + | |
− | नहीं चाहते हुए भी
| + | |
− | फिर-फिर घेर लेती है मुझे
| + | |
− | तुम्हीं कहो प्रियतम
| + | |
− | प्रेम से वशीभूत डूबा मन
| + | |
− | किसका-किसका
| + | |
− | कब-कब लौट सका है
| + | |
− | और कौन-कौन लौट पाया है
| + | |
− | प्रेम के ऐसे मदमाते क्षणों में ?
| + | |
− | | + | |
− | मुझे लगा
| + | |
− | मेरी ही तरह उमताई
| + | |
− | यह नदी भी बहती रही है
| + | |
− | समय की छाती पर दौड़ती
| + | |
− | धरती पर पसरती बिना थके
| + | |
− | अपने पिया से लिपटने को व्याकुल।
| + | |
− | | + | |
− | साहस बांध कर एकबार फिर
| + | |
− | आगे देखा और अबके ऐसा लगा
| + | |
− | कि तुम पीपलवृक्ष की फेड़ी से सटे
| + | |
− | खड़े हो मेरी आशा में
| + | |
− | तुम्हारी उजली दकदक धोती
| + | |
− | सावन की हवा से अठखेली करती
| + | |
− | तुम्हारी मखमली कुर्त्ता
| + | |
− | लम्बे बिखरे केश
| + | |
− | मन मोहने वाली तुम्हारी हँसी
| + | |
− | पगला देने वाली तुम्हारी छुवन
| + | |
− | नहीं जानती | + | |
− | और कितनी-कितनी यादें आ गई
| + | |
− | कि नाँच गई मेरी आँखों में
| + | |
− | दौड़ कर अपनी बाँहों में मुझे उठा लेना
| + | |
− | और बाँहों में ही करते मेरा वह परिरंभन
| + | |
− | | + | |
− | कैसे भूल जाऊँ वह रस-राग
| + | |
− | गालों पर कटे दाँतों के दाग
| + | |
− | | + | |
− | सिहर उठी है यह देह
| + | |
− | प्रियतम
| + | |
− | खोजती हूँ फिर से तुम्हारा वही नेह।
| + | |
− | | + | |
− | क्या कहूँ मीत-
| + | |
− | उस समय मैं कितनी शर्माई
| + | |
− | जब नदी पार करने
| + | |
− | ठेहुना तक उठाई थी साड़ी
| + | |
− | तब सच कहती हूँ मेरे प्राण
| + | |
− | धार में एक चरण धरते ही
| + | |
− | घुटने भर
| + | |
− | पानी में डूबा चाँद
| + | |
− | ठठा कर हँस पड़ा।
| + | |
− | जैसे कह रहा हो
| + | |
− | सुनो साँवरी,
| + | |
− | कहाँ चली जा रही हो उमताई हुई
| + | |
− | किससे मिलने को ऐसी पगलाई हुई
| + | |
− | कैसा जहान है ?
| + | |
− | हाँ, किसको त्राण है !
| + | |
− | | + | |
− | जाओ, जाओ
| + | |
− | अवश्य ही जाओ
| + | |
− | मुझे भी वहीं जाना है
| + | |
− | जहाँ जा रही हो तुम !
| + | |
− | असमंजस
| + | |
− | अब तुम्हीं बताओ मीत
| + | |
− | मेरे प्राणों के प्राण
| + | |
− | कौन मुँह लेकर
| + | |
− | उसी राह से होकर
| + | |
− | निराश लौट कर जाऊँगी मैं
| + | |
− | पूछेगा तो क्या बताऊँगी मैं ?
| + | |
− | निराशा से भरे
| + | |
− | मेरे मलीन चेहरे को देख कर
| + | |
− | क्या सोचेगा वह
| + | |
− | कैसे, क्या उत्तर दूँगी मैं
| + | |
− | किस तरह पार उतरूँगी मैं ?
| + | |
− | | + | |
− | किस तहर कह पाऊँगी
| + | |
− | कि जिसके लिए मरती-हफसती | + | |
− | दुल्हन-सी सजी आई थी
| + | |
− | वही मेरा मीत नहीं आया।
| + | |
− | | + | |
− | किसे कहूँ अपना यह दुख
| + | |
− | किसको सुनाऊँ अपने मन की बात
| + | |
− | | + | |
− | कौन सुनेगा,
| + | |
− | कौन पूछेगा
| + | |
− | किसको फुर्सत है
| + | |
− | हाँ सखी, चन्दन तो पूछेगी जरूर
| + | |
− | ऐसे में तुम्हीं आकर बताओ मेरे प्रियतम
| + | |
− | मैं उसे क्या कहूँ ?
| + | |
| </poem> | | </poem> |