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"डर / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल" के अवतरणों में अंतर

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सुनो प्रियतम
+
आकर तो देखो मेरे प्राणपति
मेरी आँखों का बरसना देख कर
+
आज कितनी भयावह लगती है
सावन ने बरसना छोड़ दिया है
+
पहाड़ की हँसी
 
+
कि आकाश हो गया है सुरसा  का मुँह
यही कारण है कि
+
यह इंजोरिया, जिसके हो दाँत
नहीं बरसते हैं अब
+
नदी के दोनों किनारे
सावन के ये मेघ।
+
जैसे, इसकी दो बाँहे
सूखा ही रहता है यह पूरा सावन
+
लगते हैं
और यह जो कभी-कभी
+
सब मिल कर मुझे खा जायेंगे।
चाँद छिप जाता है मेघ से
+
यह वही
जानते हो प्रियतम
+
गहराइयों और ऊँचाईयों वाला
यह क्या है ?
+
जेठोर का पहाड़ है
यह मेरी आँखों के बहते काजल हैं
+
जो तुम्हारे साथ रहने पर अपने पंख पसार
और मेरे ही बिखरे केश
+
उन पर चढ़ा घुमाता था मुझे
अगर मेघ होते
+
और आज उसी पहाड़ को लगता है
तो बरसते नहीं ?
+
हजारों-हजार हाथ निकल आये हैं
लाचारी
+
और नदी किनारे के सभी बाँस
तुम्हें क्या मालूम मेरे प्रियतम
+
उसके हाथों में बन गये हैं भालों की तरह
घर में सबके सो जाने पर
+
हवाओं में करचियाँ
डरती-छिपती ओहार और कोन्टा से होती
+
नागों की तरह फुंफकारती हैं
सबकी आँखों से अपने को बचाती
+
लगता है
गाँव से कोस भर चल कर
+
फनवाले हजारों नाग के भाले लिए
इतनी दूर यहाँ आई हूँ मैं।
+
पहाड़ दौड़े चला आ रहा है
किसके लिए आई हूँ
+
ऐसे में तुम नहीं हो तो मैं चाहती हूँ
तुम्हारे लिए ही न !
+
कि यह आकाश उलट जाए और मैं
 
+
इसकी गहराई में डूब कर मर जाऊँ।
कि मेरे आते ही तुम बज उठोगे
+
बाँसवन की सिसकारी की तरह
+
और मुझे देखते ही दौड़ पड़ोगे
+
दोनों हाथ फैलाए, समेट लोगे मुझे
+
अपनी दोनों बाँहों में हमेशा-हमेशा के लिए।
+
 
+
मगर यह सब
+
कुछ भी न हुआ
+
सूखे ही रह गये अधर,
+
प्यासा ही रहा मन।
+
 
+
मेरी इच्छाओं पर पानी फेरने वाले मेरे मीत
+
आज यह विश्वास क्यों दम तोड़ रहा है कि
+
प्रत्येक महीना की पूर्णिमा की रात में हम दोनों
+
रात्रि की सुनसान खाली बेला में
+
इसी पीपल वृक्ष के नीचे
+
एक-दो सालों से नहीं
+
जाने कितने ही सालों से
+
क्षण-क्षण मिलते रहे हैं।
+
 
+
क्या हुआ जो तुम्हारे कहने पर भी
+
स्त्री होने की लाचारी के कारण ही
+
हाँ, कहने के बाद भी न आ सकी
+
प्रियतम, क्या तुम नहीं जानते हो
+
नारी का पूरा जीवन ही
+
मर्द के हाथों में गिरवी रखा होता है
+
कौमार्य में पिता, ब्याहने पर पुरुष
+
बुढ़ापे में पुत्र
+
आखिर परम्परा के इस बन्धन को कैसे तोड़ पाती ?
+
 
+
अगर यह हिम्मत मैं क्षण में ही नहीं जुटा पाई
+
तो इसी में मेरे प्यार !
+
तुमने मुझे झुट्टी कैसे मान लिया।
+
हाँ, मैं नही आ पाई लेकिन तुम भी तो
+
कितने ही दिन इसी तरह
+
कहकर भी नहीं आये हो
+
तो क्या हो गया अगर आज मैं ही न आ सकी।
+
कि बस इतनी-सी बात के लिए
+
तुम रूठ गये हो ।
+
 
+
तो आओ दण्ड दो मुझको
+
मैं तुम्हारी सारी मनमानियाँ मानने को तैयार हूँ।
+
 
+
लेकिन इस तरह मुझको न सताओ
+
न तड़पाओ
+
रिस-रिस कर मारो नही
+
मुझको रुलाओ नही ।
+
प्रेमोन्माद
+
यह मैं मानती हूँ कि
+
प्रेम घना होने पर ऐसा ही होता है,
+
व्यक्ति ज्यादा मान चाहता है
+
लेकिन यह तो कहो प्रिये
+
क्या यह चाह, यह तड़प, यह बदहाली
+
तुमसे मुझमें कम है ?
+
 
+
तब इस तरह से
+
मेरी परीक्षा लेने का क्या अर्थ ?
+
 
+
लेकिन, तब भी तुम्हारी ही
+
सचमुच में तुम्हारी ही बात रखने के लिए
+
मैं एक अकेली लड़की
+
रात की इस सुनसान निर्जन बेला में
+
चन्दन नदी पार कर
+
डर, लाज और भय को कांेची में समेट कर
+
इस पीपल वृक्ष के समीप आ गई हूँ
+
 
+
क्या कहूँ प्रियतम
+
नदी के कोस भर फैले बालू
+
उसी तरह उमताई मैं पार कर गई
+
जैसे हिरण अपनी कस्तूरी गंध से मतायी
+
बाघ के आगे से निकल जाए।
+
 
+
मैं अपना हाल क्या सुनाऊँ प्रियतम
+
चन्दन नदी के कछार पर पैर को रखते ही
+
लगा कि तुम बीच नदी में
+
पहले की तरह खड़े हो मेरी प्रतीक्षा में।
+
 
+
तेज चलती
+
एक, दो, तीन डेगों से ही
+
जब उस जगह पहुँची
+
तो हाहाकार कर उठे मेरे प्राण
+
पूरी देह एकबारगी ही सिहर गई
+
ऐसा लगा कि पूस की रात में किसी ने
+
बर्फीले पानी में धकेल दिया हो।
+
 
+
लेकिन, कहीं कुछ नहीं था
+
तुम तो खैर नहीं ही थे प्रियतम
+
पानी पर बस एक चांद था
+
और थी उसकी चांदनी
+
जो और कुछ भी नहीं
+
मेरे ही गुमसुम उदास आँसू से भीगे
+
मुँह की छाया भर थी।
+
 
+
मन करता था
+
उसी जगह से लौट आऊँ
+
लेकिन लाचार
+
मन ही क्या करता
+
जब पाँव ही नहीं मुड़े
+
नहीं लौट सकी मैं
+
नहीं लौट पाई
+
 
+
तुमसे मिलने की आकांक्षा
+
नहीं चाहते हुए भी
+
फिर-फिर घेर लेती है मुझे
+
तुम्हीं कहो प्रियतम
+
प्रेम से वशीभूत डूबा मन
+
किसका-किसका
+
कब-कब लौट सका है
+
और कौन-कौन लौट पाया है
+
प्रेम के ऐसे मदमाते क्षणों में ?
+
 
+
मुझे लगा
+
मेरी ही तरह उमताई
+
यह नदी भी बहती रही है
+
समय की छाती पर दौड़ती
+
धरती पर पसरती बिना थके
+
अपने पिया से लिपटने को व्याकुल।
+
 
+
साहस बांध कर एकबार फिर
+
आगे देखा और अबके ऐसा लगा
+
कि तुम पीपलवृक्ष की फेड़ी से सटे
+
खड़े हो मेरी आशा में
+
तुम्हारी उजली दकदक धोती
+
सावन की हवा से अठखेली करती
+
तुम्हारी मखमली कुर्त्ता
+
लम्बे बिखरे केश
+
मन मोहने वाली तुम्हारी हँसी
+
पगला देने वाली तुम्हारी छुवन
+
नहीं जानती
+
और कितनी-कितनी यादें आ गई
+
कि नाँच गई मेरी आँखों में
+
दौड़ कर अपनी बाँहों में मुझे उठा लेना
+
और बाँहों में ही करते मेरा वह परिरंभन
+
 
+
कैसे भूल जाऊँ वह रस-राग
+
गालों पर कटे दाँतों के दाग
+
 
+
सिहर उठी है यह देह
+
प्रियतम
+
खोजती हूँ फिर से तुम्हारा वही नेह।
+
 
+
क्या कहूँ मीत-
+
उस समय मैं कितनी शर्माई
+
जब नदी पार करने
+
ठेहुना तक उठाई थी साड़ी
+
तब सच कहती हूँ मेरे प्राण
+
धार में एक चरण धरते ही
+
घुटने भर
+
पानी में डूबा चाँद
+
ठठा कर हँस पड़ा।
+
जैसे कह रहा हो
+
सुनो साँवरी,
+
कहाँ चली जा रही हो उमताई हुई
+
किससे मिलने को ऐसी पगलाई हुई
+
कैसा जहान है ?
+
हाँ, किसको त्राण है !
+
 
+
जाओ, जाओ
+
अवश्य ही जाओ
+
मुझे भी वहीं जाना है
+
जहाँ जा रही हो तुम !
+
असमंजस
+
अब तुम्हीं बताओ मीत
+
मेरे प्राणों के प्राण
+
कौन मुँह लेकर
+
उसी राह से होकर
+
निराश लौट कर जाऊँगी मैं
+
पूछेगा तो क्या बताऊँगी मैं ?
+
निराशा से भरे
+
मेरे मलीन चेहरे को देख कर
+
क्या सोचेगा वह
+
कैसे, क्या उत्तर दूँगी मैं
+
किस तरह पार उतरूँगी मैं ?
+
 
+
किस तहर कह पाऊँगी
+
कि जिसके लिए मरती-हफसती
+
दुल्हन-सी सजी आई थी
+
वही मेरा मीत नहीं आया।
+
 
+
किसे कहूँ अपना यह दुख
+
किसको सुनाऊँ अपने मन की बात
+
 
+
कौन सुनेगा,
+
कौन पूछेगा
+
किसको फुर्सत है
+
हाँ सखी, चन्दन तो पूछेगी जरूर
+
ऐसे में तुम्हीं आकर बताओ मेरे प्रियतम
+
मैं उसे क्या कहूँ ?
+
 
</poem>
 
</poem>

22:42, 22 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

आकर तो देखो मेरे प्राणपति
आज कितनी भयावह लगती है
पहाड़ की हँसी
कि आकाश हो गया है सुरसा का मुँह
यह इंजोरिया, जिसके हो दाँत
नदी के दोनों किनारे
जैसे, इसकी दो बाँहे
लगते हैं
सब मिल कर मुझे खा जायेंगे।
यह वही
गहराइयों और ऊँचाईयों वाला
जेठोर का पहाड़ है
जो तुम्हारे साथ रहने पर अपने पंख पसार
उन पर चढ़ा घुमाता था मुझे
और आज उसी पहाड़ को लगता है
हजारों-हजार हाथ निकल आये हैं
और नदी किनारे के सभी बाँस
उसके हाथों में बन गये हैं भालों की तरह
हवाओं में करचियाँ
नागों की तरह फुंफकारती हैं
लगता है
फनवाले हजारों नाग के भाले लिए
पहाड़ दौड़े चला आ रहा है
ऐसे में तुम नहीं हो तो मैं चाहती हूँ
कि यह आकाश उलट जाए और मैं
इसकी गहराई में डूब कर मर जाऊँ।