"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6" के अवतरणों में अंतर
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− | अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत से पाता है. | + | |
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+ | :चलता ना छत्र पुरखों का धर. | ||
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सब देख उसे ललचाते हैं, | सब देख उसे ललचाते हैं, | ||
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− | कुल-गोत्र नही साधन मेरा, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा. | + | "कुल-गोत्र नही साधन मेरा, |
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− | लेकिन मैं लौट चलूँगा | + | "लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? |
− | रण मे कुरूपति का विजय वरण, या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, | + | :अपने प्रण से विचरूँगा क्या? |
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+ | रण मे कुरूपति का विजय वरण, | ||
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+ | :या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, | ||
हे कृष्ण यही मति मेरी है, | हे कृष्ण यही मति मेरी है, | ||
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− | मैत्री की बड़ी सुखद छाया | + | "मैत्री की बड़ी सुखद छाया, |
− | धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर, | + | :शीतल हो जाती है काया, |
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+ | धिक्कार-योग्य होगा वह नर, | ||
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+ | :जो पाकर भी ऐसा तरुवर, | ||
हो अलग खड़ा कटवाता है | हो अलग खड़ा कटवाता है | ||
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− | जिस नर की बाह गही | + | "जिस नर की बाह गही मैने, |
− | उस पर न वार चलने दूँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा, | + | :जिस तरु की छाँह गहि मैने, |
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+ | उस पर न वार चलने दूँगा, | ||
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+ | :कैसे कुठार चलने दूँगा, | ||
जीते जी उसे बचाऊँगा, | जीते जी उसे बचाऊँगा, | ||
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− | मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब उसे तोल सकता है धन? | + | "मित्रता बड़ा अनमोल रतन, |
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+ | धरती की तो है क्या बिसात? | ||
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उसको भी न्योछावर कर दूँ, | उसको भी न्योछावर कर दूँ, | ||
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− | सिर लिए स्कंध पर चलता | + | "सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ, |
− | यदि चले वज्र दुर्योधन पर, ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर. | + | :उस दिन के लिए मचलता हूँ, |
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+ | यदि चले वज्र दुर्योधन पर, | ||
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कटवा दूँ उसके लिए गला, | कटवा दूँ उसके लिए गला, | ||
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− | सम्राट बनेंगे धर्मराज | + | "सम्राट बनेंगे धर्मराज, |
− | लड़ना भर मेरा कम रहा, दुर्योधन का संग्राम रहा, | + | :या पाएगा कुरूरज ताज, |
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मुझको न कहीं कुछ पाना है, | मुझको न कहीं कुछ पाना है, | ||
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− | कुरूराज्य | + | "कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? |
− | क्या नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना? | + | :साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? |
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जीवन का मूल्य समझता हूँ, | जीवन का मूल्य समझता हूँ, | ||
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− | धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. | + | "धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, |
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+ | :साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. | ||
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+ | भुजबल से कर संसार विजय, | ||
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दे दिया मित्र दुर्योधन को, | दे दिया मित्र दुर्योधन को, | ||
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− | वैभव विलास की चाह | + | "वैभव विलास की चाह नहीं, |
− | बस यही चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल, | + | :अपनी कोई परवाह नहीं, |
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+ | बस यही चाहता हूँ केवल, | ||
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+ | :दान की देव सरिता निर्मल, | ||
करतल से झरती रहे सदा, | करतल से झरती रहे सदा, | ||
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निर्धन को भरती रहे सदा. | निर्धन को भरती रहे सदा. | ||
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11:55, 22 अगस्त 2008 का अवतरण
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"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
- चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
- सम्मान जगत से पाता है.
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
- पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
- मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है.
"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
- अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
- या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
- शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
- जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है.
"जिस नर की बाह गही मैने,
- जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
- कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,
"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
- कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
- आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
- उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
- ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
- या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
- दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
- साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
- मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.
"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
- साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.
भुजबल से कर संसार विजय,
- अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को.
"वैभव विलास की चाह नहीं,
- अपनी कोई परवाह नहीं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
- दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.