|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, चलता ना छत्र पुरखों का धर. [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5|<< तृतीय सर्ग / भाग 5]] | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 7 | तृतीय सर्ग / भाग 7 >>]]
"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, :चलता ना छत्र पुरखों का धर. अपना बल-तेज जगाता है, :सम्मान जगत से पाता है.
सब देख उसे ललचाते हैं,
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा, :पुरुषार्थ एक बस धन मेरा. कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
कुल ने तो मुझको फेंक दिया, :मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
:अपने प्रण से विचरूँगा क्या? रण मे कुरूपति का विजय वरण, :या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया, शीतल हो जाती है काया,
:शीतल हो जाती है काया, धिक्कार-योग्य होगा वह नर, :जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
"जिस नर की बाह गही मैने, जिस तरु की छाँह गहि मैने,
:जिस तरु की छाँह गहि मैने, उस पर न वार चलने दूँगा, :कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
"मित्रता बड़ा अनमोल रतन, :कब उसे तोल सकता है धन? धरती की तो है क्या बिसात?
धरती की तो है क्या बिसात? :आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ, उस दिन के लिए मचलता हूँ,
:उस दिन के लिए मचलता हूँ, यदि चले वज्र दुर्योधन पर, :ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गला,
"सम्राट बनेंगे धर्मराज, या पाएगा कुरूरज ताज,
:या पाएगा कुरूरज ताज, लड़ना भर मेरा कम रहा, :दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
:साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? क्या नहीं आपने भी जाना? :मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, :साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. भुजबल से कर संसार विजय,
भुजबल से कर संसार विजय, :अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
"वैभव विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं,
:अपनी कोई परवाह नहीं, बस यही चाहता हूँ केवल, :दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.
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