"काँपती रूह / ज्योत्स्ना शर्मा" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्योत्स्ना शर्मा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
+ | '''8-काँपती रूह | ||
+ | ''' | ||
+ | हौले से सहला, | ||
+ | आ ..तुझे गोद में | ||
+ | प्यार से सुलाऊँ .. | ||
+ | बदन निष्कम्प ! | ||
+ | काँपती रूह को | ||
+ | ढाँढस कैसे बँधाऊँ ? | ||
+ | '''9-फ़रमान | ||
+ | ''' | ||
+ | लो बताओ ! | ||
+ | ये कैसा ... | ||
+ | फ़रमान सुना दिया | ||
+ | जन्नत की चाहत में | ||
+ | जन्नत को... | ||
+ | जहन्नुम बना दिया ! | ||
+ | |||
+ | '''10-दाग़''' | ||
+ | |||
+ | बड़ी चाहत से | ||
+ | जिसे ..... | ||
+ | आँखों में सजाया | ||
+ | उसी ज़ालिम ने | ||
+ | गुलाबी दामन पे | ||
+ | दाग़ क्यों लगाया ? | ||
+ | |||
+ | '''11-चाहत के कंदील''' | ||
+ | |||
+ | तनहा थी ज़िंदगी .. | ||
+ | गुम थे उजाले | ||
+ | मैं भी बैठी रही | ||
+ | तेरी... | ||
+ | चाहत के कंदील बाले ! | ||
+ | |||
+ | '''12-निर्मम | ||
+ | ''' | ||
+ | हमारी ... | ||
+ | समाज की .... | ||
+ | पीड़ा की कोई सीमा न थी | ||
+ | एक दुखद ,कड़वा सत्य | ||
+ | अनावृत्त था ...और ... | ||
+ | 'तमाशबीनों' के पास | ||
+ | चादर न थी ....... | ||
+ | इतने निर्मम … | ||
+ | कैसे हो गए हम ...!! | ||
+ | |||
+ | '''13-करें दुआएँ !''' | ||
+ | |||
+ | पर्यावरण दिवस ! | ||
+ | कुछ ऐसे मनाएँ | ||
+ | पेड़ लगाएँ | ||
+ | और फिर ..... | ||
+ | करें दुआएँ | ||
+ | कि ... | ||
+ | उन पर लटकते | ||
+ | फल ही नज़र आएँ !!! | ||
+ | |||
+ | '''14-सड़क बोलती है''' | ||
+ | |||
+ | सड़क बोलती है- | ||
+ | जिधर चाहते हो | ||
+ | उधर मोड़ते हो , | ||
+ | हैरत है; लेकिन | ||
+ | मैं जोड़ती हूँ | ||
+ | तुम तोड़ते हो ! | ||
</poem> | </poem> |
23:38, 11 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
8-काँपती रूह
हौले से सहला,
आ ..तुझे गोद में
प्यार से सुलाऊँ ..
बदन निष्कम्प !
काँपती रूह को
ढाँढस कैसे बँधाऊँ ?
9-फ़रमान
लो बताओ !
ये कैसा ...
फ़रमान सुना दिया
जन्नत की चाहत में
जन्नत को...
जहन्नुम बना दिया !
10-दाग़
बड़ी चाहत से
जिसे .....
आँखों में सजाया
उसी ज़ालिम ने
गुलाबी दामन पे
दाग़ क्यों लगाया ?
11-चाहत के कंदील
तनहा थी ज़िंदगी ..
गुम थे उजाले
मैं भी बैठी रही
तेरी...
चाहत के कंदील बाले !
12-निर्मम
हमारी ...
समाज की ....
पीड़ा की कोई सीमा न थी
एक दुखद ,कड़वा सत्य
अनावृत्त था ...और ...
'तमाशबीनों' के पास
चादर न थी .......
इतने निर्मम …
कैसे हो गए हम ...!!
13-करें दुआएँ !
पर्यावरण दिवस !
कुछ ऐसे मनाएँ
पेड़ लगाएँ
और फिर .....
करें दुआएँ
कि ...
उन पर लटकते
फल ही नज़र आएँ !!!
14-सड़क बोलती है
सड़क बोलती है-
जिधर चाहते हो
उधर मोड़ते हो ,
हैरत है; लेकिन
मैं जोड़ती हूँ
तुम तोड़ते हो !