|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
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<poem>
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर !
आज का दिन दिन नहीं है,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता ।पाता।
और पानी गिर रहा है,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिल-खिलाएँखिलखिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,
भुजा भाई प्यार बहिने,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनको पड़े होंगे ।होंगे।
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा,
आँख में किस लिए किसलिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,
वह तुम्हारा मन समझ करसमझकर,और अपनापन समझ करसमझकर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,
गिर रहा है आज पानी,
याद अता आता है भवानी,
उसे थी बरसात प्यारी,
रात-दिन की झड़ी -झारी,
खुले सिर नंगे बदन वह,
मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,
और फिर पानी बहा होगा,
दृश्य उसके बद बाद का रे,
पाँचवें की याद का रे,
ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा ।होगा।
अभी पानी थम गया है,
ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरनें किरणें झुकें-झाँकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,
दिशा के मन में समाई,
दश-दिशा चुपचाप है रे,
स्वस्थ मन की छाप है रे,
झाड़ आँखें बन्द करके,
घाव उर के खोलता है,
आदमी के उर बिचारे,
किस लिए किसलिए इतनी तृषा रे,
तू ज़रा-सा दुःख कितना,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुख डट कर ठेलता झेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,