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शंकर की पुरी, चीन ने सेना को उताराचालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा हो जाय पराधिन पराधीन नहीं गंग की धारा गंगा के किनारों ने शिवालय को पुकारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
गंगा अम्बर के किनारों को शिवालय तले हिन्द की दीवार हिमालयसदियों से रहा शांति की मीनार हिमालयअब मांग रहा हिन्द से तलवार हिमालयभारत की तरफ चीन ने पुकारा है पाँव पसारा।हम भाई समझते जिसे दुनियां में उलझ के चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
हम भाई समझते जिसे दुनिया से उलझ केवह घेर रहा आज हमें बैरी समझ के चोरी भी करे और करे बात गरज के बर्फों में पिघलने को चला लाल सितारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। धरती का मुकुट आज खड़ा डोल रहा हैइतिहास में अध्याय नया खोल रहा हैघायल है, अहिंसा का वज़न तोल रहा हैधोखे से गया छूट भाई-भाई का नारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
बर्फों मे पिघलने है भूल हमारी, वह छुरी क्यों न निकालेतिब्बत को चला लाल सितारा अगर चीन के करते न हवालेपड़ते न हिमालय के शिखर चोर के पालेसमझा न सितारों ने घटाओं का इशारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारापुकारा। ओ बात के बलवान! अहिंसा के पुजारी! बातों की नहीं आज तेरी आन की बारीबैठा ही रहा तू तो गयी लाज हमारीखा जाय कहीं जंग नहीं खड़ग दुधारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। जागो कि बचाना है तुम्हें मानसरोवररख ले न कोई छीन के कैलाश मनोहरले ले न हमारी यह अमरनाथ धरोहरउजड़े न हिमालय तो अचल भाग्य तुम्हारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। इतिहास पढो, समझो तो मिलती है ये शिक्षाहोती न अहिंसा से कभी देश की रक्षाक्या लाज रही जबकि मिली प्राण की भिक्षायह हिन्द शहीदों का अमर देश है प्यारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। भूला है पडोसी तो उसे प्यार से कह दोलम्पट है, लुटेरा है तो ललकार से कह दोजो मुंह से कहा है वही तलवार से कह दो आये न कभी लूटने भारत को दुबारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। कह दो कि हिमालय तो क्या पत्थर भी न देंगेलद्दाख की तो बात क्या बंजर भी न देंगेआसाम हमारा है रे! मर कर भी न देंगेहै चीन का लद्दाख तो तिब्बत है हमारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। भारत से तुम्हें प्यार है तो सेना को हटा लोभूटान की सरहद पर बुरी दृष्टि न डालोहै लूटना सिक्किम को तो पेकिंग को संभालोआज़ाद है रहना तो करो घर में गुज़ारा।चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा। '''यह रचना पहले हमें चन्द्र प्रकाश जी (chandraprakash2508@gmail.com) ने भेजी है। यह कविता उन्हें उनकी माँ की एक पुरानी डायरी में हाथ से लिखी हुई मिली है। उसमें कवि का नाम भी गोपाल सिंह नेपाली ही लिखा हुआ है। लेकिन इस अधूरी कविता को प्रभात कुमार माथुर (mathur.prabhat@gmail.com) ने पूरी की है, प्रभात कुमार माथुर के अनुसार "वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण के समय तत्कालीन जनसंघ के मुखपत्र पांचजन्य में छपी थी"।'''
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