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मन जितना अधिक शब्द और अर्थ में रमता है उससे अधिक उसे रूप आकार भाते हैं। कम से कम मेरे लिए तो यही सत्य रहा है। नाव के पाँवों की कल्पना भी इसी रूपाकार प्रियता का ही एक परिणाम है। कविताएँ लिखने से अधिक चित्र बनाना रुचता है। इसी स्वभाव ने मुझे इस संग्रह की हर कविता को रूपाकारों में अलंकृत करने के लिए प्रेरित किया। अलंकरण में अर्थ और आकारों की पारस्परिक संगति रखने का यथासम्भव प्रयास किया गया है।
इस सँग्रह को इस रूप में प्रस्तुत करने में मुझे अपने निकट के अनेक मित्रों रघुवंश जी, भारती, लक्ष्मीकान्त वर्मा, सर्वेश्वर, रामस्वरूप चतुर्वेदी और सबसे अधिक साही से सहयोग मिला है जिसके लिए मैं उन सब का हृदय से आभारी हूँ।
जगदीश गुप्त
वैशाखी पूर्णिमा
सम्वत् 2012
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