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मिगुएल हेरनान्देज़ ने जीवन संगीत के सुरों को संघर्ष की तान पर कस खन्दकों से रची युद्ध और प्रेम की कविता। एक योद्धा-कवि जिसने अपने जैसे अन्य योद्धा कवियों की तरह ही मेहनतकश जनता की लड़ाइयों को मज़बूत बनाने के लिए कविता को अपना हथियार बनाया। स्पेन के गृहयुद्ध के दौरान इस कवि ने रेडियो पर, बैरकों में, सैनिकों के बीच फासिस्टों के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष में सांस्कृतिक मोर्चे की कमान सँभाली।
मिगुएल की उभरती राजनीतिक चेतना की पहली अभिव्यक्ति उसकी कविता ‘सोनरेईदमे” (मेरी तरफ़ मुस्कुराओ) में आती है। इस कविता में मिगुएल की परम्परागत शैली और धार्मिक प्रभाव से स्पष्ट विच्छेद और नेरुदा और आलेक्सान्द्रे का प्रभाव दिखता है। मिगुएल के सामने वह दुनिया खुलती हुई नज़र आती है जिसमें कविता तराशे हुए हीरे-जवाहरात से जड़े आभूषण नहीं होती, बल्कि जिसमें कविता साँस लेती, धड़कती, लड़ती, जनता के साथ खड़ी होती है। सोनरेईदमे में मिगुएल पूँजी की बेरहम मार और घृणित चर्च के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करता है –
<poem>मुस्कुराओ मेरी तरफ़, कि मैं जा रहा हूँ<br>वहाँ, जहाँ हमेशा से हो तुम सब,<br>जो धान की बालियों और पुलियों से ढँक देते हो हम पर थूकने वालों के मुँह,<br>जो मेरे साथ खेतों, मचानों, लुहारखाने, भट्ठी में<br>दिन-ब-दिन नोंच फेंकते हो पसीने के मुकुट।<br>मैं अपने-आपको मुक्त करता हूँ मन्दिरों से:<br>मुस्कुराओ मेरी तरफ़</poembr
मिगुएल जब स्पेन के उग्र परिवर्तनों और जनता के संघर्षों से जुड़ रहा था तब उसके संवेदनशील अन्तर्जीवन ने इन परिवर्तनों को भावनात्मक ज़मीन पर महसूस किया और तदनुसार उसे सम्पादित-संशोधित, पुनर्गठित कर अपनी कलात्मक अभिव्यक्तियों में प्रस्तुत किया। लेकिन इन परिवर्तनों से प्रत्यक्ष जुड़ाव और जनता के संघर्षों में सक्रिय भूमिका ने मिगेल को भावनात्मक ज़मीन से आगे चीज़़ों की सैद्धान्तिक समझदारी की ओर अग्रसर किया। उसने भावना और सिद्धान्त के जैविक मिश्रण को अभ्यान्तरीकृत किया। लेखक के अन्तर्जीवन – संवेदनशील अन्तर्जीवन के संशोधन-परिष्करण का कार्य इतना सरल नहीं होता। लेकिन मेहनतकश जनता से सच्चा जुड़ाव और उनके संघर्षों में प्रत्यक्ष भागीदारी इस प्रक्रिया को तीव्र कर देती है। एक सच्चा संवेदनशील कवि अपनी जनता, उसके विद्रोहों और संघर्षों से अलग-थलग कला का सृजन नहीं कर सकता।
मिगुएल के संवेदनात्मक-अनुभवात्मक जीवन-ज्ञान- व्यवस्था के साथ सिद्धान्त का समन्वय उसकी कविता आन्दालूसेस दे ख़येन में स्पष्ट दिखती है। इस कविता में वह उग्र मानवतावादी भावनात्मक उद्गार की सीमाओं को भेदता हुआ उत्पादन तथा उत्पादन सम्बन्धों में जनता की भूमिका तक पहुँचता है। इस कविता में ख़येन के आन्दालूसी उस मेहनतकश मज़दूर आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी मेहनत से पूरी दुनिया को काया और सुन्दरता देती है। इतना ही नहीं अपने ही उत्पादन से अलगाव में जी रही इस सर्जक आबादी को मिगुएल उसकी शक्ति का एहसास दिलाता है।
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जैतून चुनने वाले
ख़येन के आन्दालूसियो,
अभिमानी जैतून चुनने वालो
आत्मा की गहराई से मुझे बताओ
किसने बड़ा किया इन जैतून के पेड़ों को
ख़येन के आन्दालूसियो
न पैसे ने, न मालिक ने औरजैतून चुनने वाले<br>न ही निरे शून्य नेबल्कि मौन मिट्टीख़येन के आन्दालूसियो,<br>मेहनत और पसीने नेअभिमानी जैतून चुनने वालो<br>शुद्ध पानी और ग्रहोंआत्मा की गहराई से मुझे बताओ<br>किसने बड़ा किया इन जैतून के साथ मिलकरतुम तीनों ने दी है ख़ूबसूरतीइसके घुमावदार तनों पेड़ों को<br>ख़येन के आन्दालूसियो,<br><br>
न पैसे ने, न मालिक ने और<br>न ही निरे शून्य ने<br>बल्कि मौन मिट्टी,<br>मेहनत और पसीने ने<br>शुद्ध पानी और ग्रहों<br>के साथ मिलकर<br>तुम तीनों ने दी है ख़ूबसूरती<br>इसके घुमावदार तनों को<br>ख़येन के आन्दालूसियो,<br><br> अभिमानी जैतून चुनने वालो<br>आत्मा की गहराई से मुझे बताओे<br>किसने दूध पिलाया जैतून के पेड़ों को।<br>न जाने जैतून की कितनी सदियाँ,<br>बँधे हुए हाथ-पाँव<br>दिन-ब-दिन, रात-दर-रात<br>अपने बोझ तले दबाती हैं तुम्हारी हड्डियों को!<br>ख़येन के आन्दालूसियो,<br><br> अभिमानी जैतून चुनने वालो,<br>मेरी आत्मा पूछती है: किसके, किसके हैं<br>ये जैतून के पेड़?<br>ख़येन, अपने चन्द्रिका पत्थरों से<br>पूरे आक्रोश में उठो<br>कि कोई भी गुलाम नहीं रहेगा<br>न तुम न तुम्हारे जैतून के बागीचे<br>तेल की पारदर्शिता और<br>उसकी महक के बीच तुम्हारी मुक्ति<br>है पर्वतों की मुक्ति में<br>
अभिमानी जैतून चुनने वालो,
मेरी आत्मा पूछती है: किसके, किसके हैं
ये जैतून के पेड़?
ख़येन, अपने चन्द्रिका पत्थरों से
पूरे आक्रोश में उठो
कि कोई भी गुलाम नहीं रहेगा
न तुम न तुम्हारे जैतून के बागीचे
तेल की पारदर्शिता और
उसकी महक के बीच तुम्हारी मुक्ति
है पर्वतों की मुक्ति में
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(ख़येन स्पेन के आन्दालूसिया क्षेत्र का एक शहर है जिसे जैतून के तेल का वैश्विक केन्द्र माना जाता है।)
मिगुएल के जीवन के अन्तिम दिन ज़्यादातर जेल की सलाखों के पीछे बीते। लेकिन सलाखों के बाहर भी ज़िन्दगी क़ैद थी। इन अँधेरे दिनों के गीत मिगुएल ने अपनी कविताओं में गाए हैं। ये कविताएँ उन अँधेरे, निराशा, हताशा, विशाद और मायूसी भरे दिनों की कविताएँ हैं जो अँधेरे समय का गीत गाती हैं। ऐसी ही एक कविता है नाना दे सेबोया (प्याज़ की लोरी)। मिगुएल की पत्नी ने उसे जेल में चिट्ठी भेजी और उसे बताया कि घर में खाने को कुछ भी नहीं है सिवाय प्याज़ और ब्रेड के। मिगुएल का एक छोटा बेटा था, मिगुएल ने जेल से अपने बेटे के लिए यह लोरी लिखी थी –
<poem>प्याज़ की लोरी<br>प्याज पाला है<br>बेचारा और क़ैद:<br>तुम्हारे दिन और<br>मेरी रातों का पाला<br>भूख और प्याज:<br>काली बर्फ़ और<br>बड़ा सा गोल पाला।<br>भूख के झूले में<br>है मेरा लाल<br>जो पल रहा था<br>प्याज के ख़ून पर<br>लेकिन तुम्हारा ख़ून<br>चीनी, प्याज़ और<br>भूख का पाला<br>चाँदनी में ढली<br>साँवली औरत<br>बहती है झूले पर<br>रेशा-रेशा<br>हँसो, मेरे लाल<br>कि ज़रूरत होने पर<br>तुम चाँद को भी<br>निगल जाओगे।<br>
तुम्हारी हँसी मुझे आज़ाद करती है,<br>मुझे पंख देती है<br>मुझसे मेरा अकेलापन छीन लेती है<br>नोच देती है मेरी सलाखों को।<br>मुँह जो उड़े, दिल<br>जो तुम्हारे होंठों पर बिजली की तरह कौंध जाए।</poembr>