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Kavita Kosh से
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होती हूँ रोजअपमानित औरतिरस्कृत भी।चलाती हूँ कलमभावों में डुबो।अक्सर रहती हूँमौन ही मैं तोहै बोलती कलम।भाता नहीं क्योंआगे बढ़ना मेरा?क्यों मिटाते हैं मेरा वो वज़ूद किउठ ना सकूँदोबारा से कलम।खोद रहे हैंजड़ों को मेरी अबलगा दिया हैघुन मेरी सोचों मेंटूटकर मैंहो जाती चूर-चूरन साथ देताअगर मेरा साथीन ही बढ़ाता लगातार हौसलान पूरा होतालेखन का काफ़िलाबहुत हुआअब नहीं रुकेगीकभी लेखनीऔर आगे बढ़ेगीखूब रचेगीषड़यन्त्रों के हत्थेबिल्कुल न चढ़ेगी।-०-
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