|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष<ref>श्वेत, धवल, दीप्त</ref> है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
वह कौन रोता है वहाँऔर तब सम्मान से जाते गिनेनाम उनके, देश-<br>मुख की लालिमाइतिहास है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;देश की इज्जत बचाने के अध्याय पर,<br><br>लिएया चढा जिसने दिये निज लाल हैं।
जिसमें लिखा हैईश जानें, नौजवानों के लहु देश का मोल लज्जा विषयतत्व है<br>कोई कि केवल आवरणप्रत्यय किसी बूढे, उस हलाहल-सी कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार द्रोहाग्नि का;<br>जिसका हृदय उतना मलिन जितना जो कि शीर्ष वलक्ष है;<br><br>जलती आ रही चिरकाल सेस्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणीनायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
जो आप तो लड़ता विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष मेंमूल हो सकता नहीं,<br>द्रोहाग्नि का;कटवा किशोरों को मगरचाहता लड़ना नहीं समुदाय है,<br>आश्वस्त होकर सोचता,<br>शोनित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की?<br><br>साँस से।
और तब सम्मान हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से जाते गिने<br>,नाम उनकेहर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, देशक्या शस्त्र ही-मुख की लालिमा<br>उपचार एक अमोघ है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;<br>देश की इज्जत बचाने के लिए<br>या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।<br><br>अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
ईश जानेंलड़ना उसे पड़ता मगर।औ' जीतने के बाद भी, देश का लज्जा विषय<br>तत्त्व रणभूमि में वह देखता है कोई कि केवल आवरण<br>उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का<br>सत्य को रोता हुआ;वह सत्य, है जो कि जलती आ रही चिरकाल से<br>स्वार्थ-लोलुप सभ्यता रो रहा इतिहास के अग्रणी<br>अध्याय मेंनायकों विजयी पुरुष के पेट में जठराग्नि-सी।<br><br>नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
विश्व-मानव उस सत्य के हृदय निर्द्वेष में<br>आघात सेमूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;<br>हैं झनझना उठती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,चाहता लड़ना नहीं समुदाय हैसहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।वह तिलमिला उठता, मगर,<br>फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।<br><br>है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,<br>सहसा हृदय को तोड़करहर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र हीकढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-<br>उपचार एक अमोघ है<br>अन्याय 'नर काबहाया रक्त, अपकर्ष काहे भगवान! मैंने क्या कियालेकिन, विष का गरलमय द्रोह का!<br><br>मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
लड़ना उसे पड़ता मगर।<br>औ' जीतने इस दंश के बाद भी,<br>दुख भूल कररणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआहोता समर-आरूढ फिर;<br>वह सत्यफिर मारता, मरता, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में<br>विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।<br><br>विजय पाकर बहाता अश्रु है।
उस सत्य के आघात से<br>यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि मेंहैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण नर-मेध की असहाय-सीलीला हुई जब पूर्ण थी,<br>सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।<br>वह तिलमिला उठता, मगर,<br>पीकर लहू जब आदमी के वक्ष काहै जानता इस चोट वज्रांग पाण्डव भीम का उत्तर न उसके पास है।<br><br>मन हो चुका परिशान्त था।
सहसा हृदय को तोड़कर<br>और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की-<br>'नर का बहाया रक्तदाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से, हे भगवान! मैंने क्या किया<br>लेकिनरक्त-वेणी कर चुकी थी केश की, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।<br><br>केश जो तेरह बरस से थे खुले।
इस दंश क दुख भूल कर<br>और जब पविकाय पाण्डव भीम नेहोता समरद्रोण-आरूढ फिर;<br>सुत के शीश की मणि छीन करफिर मारता, मरता,<br>हाथ में रख दी प्रिया के मग्न होविजय पाकर बहाता अश्रु है।<br><br>पाँच नन्हें बालकों के मूल्य-सी।
यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में<br>नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,<br>पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का<br>वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।<br><br> और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,<br>मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की<br>दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,<br>रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,<br>केश जो तेरह बरस से थे खुले।<br><br> और जब पविकाय पाण्डव भीम ने<br>द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर<br>हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो<br>पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।<br><br> कौरवों का श्राद्ध करने के लिए<br>या कि रोने को चिता के सामने,<br>शेष जब था रह गया कोई नहीं<br>एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।<br[[कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2|अगला भाग >>]]<br/poem>{{KKMeaning}}