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|रचनाकार= सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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{{KKCatKavita}}<poem>गहन है यह अंधकारा;<br>स्वार्थ के अवगुंठनों से<br>हुआ है लुंठन हमारा।<br><br>
खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,<br>बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर<br>इस गगन में नहीं दिनकर;<br>नही शशधर, नही तारा।<br><br>
कल्पना का ही अपार समुद्र यह,<br>गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,<br>कुछ नही आता समझ में <br>कहाँ है श्यामल किनारा।<br><br>
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,<br>याद जिससे रहे वंचित गेह की,<br>खोजता फिरता न पाता हुआ,<br>मेरा हृदय हारा।<br><br/poem>
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