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हमारे शहर को ये क्या हो गया है
सुहाना वो मंज़र कहाँ खो गया है
न ख़ुशबू गुलों में न रंगे-हिना वो
कोई गुलिस्ताँ में ज़हर बो गया है
 
शहर की हिफा़ज़त थी जिसके हवाले
शहर का वो दरबान भी सेा गया है
 
परिन्दे परीशाँ चमन जल रहा है
अमन का मसीहा कहाँ खो गया है
 
वही जाने जाँ था वही जानेमन भी
वही जानी दुश्मन मगर हो गया है
</poem>
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