"अपाहज दिनों की निदामत / जावेद अनवर" के अवतरणों में अंतर
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बहनों के सजदों में | बहनों के सजदों में | ||
माँ बाप के बे-ज़बाँ दर्द में अधजले सिगरटों का तमाशा बनूँ | माँ बाप के बे-ज़बाँ दर्द में अधजले सिगरटों का तमाशा बनूँ |
00:01, 30 अप्रैल 2019 के समय का अवतरण
खिड़कियाँ खोल दो
ज़ब्त की खिड़कियाँ खोल दो
मैं खिलूँ जून की दोपहर में
दिसम्बर की शब में
सभी मौसमों के कटहरे में अपनी नफ़ी का मैं इस्बात बन कर खिलूँ
ख़्वाहिशों
नींद की जँगली झाड़ियों
अपने ही ख़ून की दलदलों में खिलूँ
भाइयों की फटी आस्तीनों में
बहनों के सजदों में
माँ बाप के बे-ज़बाँ दर्द में अधजले सिगरटों का तमाशा बनूँ
हर नई सुबह के बस स्टापों पे ठहरी हुई लड़कियों की किताबों में
मस्लूब होने चलूँ
मैं अपाहज दिनों की निदामत बनूँ
खिड़कियाँ खोल दो
छोड़ दो रास्ते
शहर-ए-बे-ख़्वाब में घूमने दो मुझे
सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक
इस अन्धेरे की इक-इक किरण चूमने दो मुझे
जिसमें बेज़ार लम्हों की साज़िश हुई
और दहलों से नहले बड़े हो गए
जिसमें बे-नूर किरनों की बारिश हुई
बहर-ए-शब-ज़ाद में जो सफ़ीने उतारे भँवर बन गए
ख़ाब में ख़ाब के फूल खिलने लगे, खिड़कियाँ खोल दो
जागने दो मुझे