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एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब
पर्व पर्वत पर सर्वत्र हर्ष ही हर्ष, मैं भी हर्षित । भोर ! कितनी सलोनी धरती, कितना सलोना आकाशसब अपनी-अपनी जगह, जिसे जहाँ होना चाहिए तुम आते हो घर, ज्यों आए कोई ख़ुशख़बरी हीतुममें आपाद-मस्तक नेकी ही नेकीरात को परे धकेल देते हो । तुम ही तुम होते होऔर होती हैं ख़ुशियाँ और सबकुछ विलक्षण इस दुनिया में सुबह ! तुम्हारे आते ही चल जाता है पता तुम्हारे आने कापहाड़ की चोटि पर पसरती है हिम,चमचमाती है नदी, चमचमाते हैं नवाँकुरजागता खलभलाता है जीवन, बच्चे मगन क्रीड़ाओं में,और औरतें मशगूल कामकाज में तुम आते और लाते हो हम सबके वास्ते जीवनलाते हो ताज़ा रोटी, निर्मल जलहम ताकते हैं ऊपर को और देखते हैं आकाश — देखते हैं आकाश में मेघ और स्वतन्त्रता यक़ीन मानो — सुबह सबकुछ लगता है भलाहमारे आऊल में फटकती नहीं हैं पापात्माएँचूल्हे में सिंकती है रोटी, दीवार पर थिरकती हैम किरणेंबच्चे, बूढ़े और जवान सब के सब ज़िन्दादिल, अलमस्त । सुनह ! तुम्हारे आने पर तुम्हारे साथ देखी मैंने दुनियामैं फटाफट काटता हूँ एक त
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]'''
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