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कितनी भयावह थी मेरे लिए वह्रातवह रातमुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं धेरों ढेरों चट्टानेंधँस गई है हैं मेरे घर में, मुझे चकनाचूर करने के वास्ते
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ
और अलाय-बलाय
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़
जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी -से झपट पड़े मुझ पर
’त्राहि माम्‍ - त्राहि माम्‍’ — चिल्लाया मैं
जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी
मानो चट्टानें फट पड़ी हों रौन्दने को
मानो अँट गई हो धरती रक्त और कूड़े के ढेर से
ऐसे में तड़पा मैं बेतरह तुम्हारे लिए , भोर !
मेरे लिए इतनी भयावह थी वह रात
कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष
चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत
फिर से आसमान आसमान-सा, धरती धरती-सी,
न कहीं कोई हौवा, न कहीं कोई बिजूका
मेरे गीत हैं, जैसे उड़ान पर निकले हर्षोन्मत्त पाखी
कविता है मेरी उमँगों से लबरेज़ नीलवर्णी चिदइयाचिड़िया-सीउमड़ती हैं नई पँक्तियाँ , रुनझुन-रुनझुन करती हैं यशोगाननभ का मेघ का, पृथ्वी का , गेहूँ की बाली का ।
एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब
सुबह ! तुम्हारे आते ही चल जाता है पता तुम्हारे आने का
पहाड़ की चोटि चोटी पर पसरती है हिम,
चमचमाती है नदी, चमचमाते हैं नवाँकुर
जागता खलभलाता है जीवन, बच्चे मगन क्रीड़ाओं में,
बच्चे, बूढ़े और जवान सब के सब ज़िन्दादिल, अलमस्त ।
सुनह सुबह ! तुम्हारे आने पर तुम्हारे साथ देखी मैंने दुनिया
मैं फटाफट काटता हूँ एक तरबूज आतिथ्य के लिए
और करता हूँ इन्तज़ार पहाड़ का,
देती है बच्चों को फूल और खिलौने,
सुबह हर्ष का बायस है, अश्वारोही और श्रमिक के वास्ते
सुबह — सिरहाने का पत्थर मुझे लगता है कोमल तकिये-सा
सुबह के आने सेसमाप्त से समाप्त सारी दुश्चिन्ताएँ
सबकुछ ठीक-ठाक, सही-सलामत निज़ाम में
नभ नभ-सा, धरती धरती-सी,
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