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आज चौंक पूछ बैठी मुझसे
एक सखी- क्या है फूलदेई?
मैं बोली पुरखों की विरासत है-
पहाड़ी लोकपर्व- फूलदेई
मैं नहीं थी हैरान, सुदूर प्रान्त की
सखी क्या जाने- फूलदेई
किन्तु, गहन थी पीड़ा,
पहाड़ी बच्चा भी नहीं जानता- फूलदेई
आँख मूँदकर तब मैं
अपने बचपन में तैरती चली गई
चैत्र संक्रांति से बैशाखी तक
उमड़ती थी फुलारों की टोली
रंग-रँगीले फूल चुनकर
साँझ-सवेरे सजती डलिया फूलों की
सरसों, बाँसा, किन्गोड़, बुराँस,
मुस्कुराती नन्ही फ्रयोंली-सी
उमड़-घुमड़ गीत गाते थे
मैं और मेरे झूमते संगी-सखी
इस, कभी उस खेत के बीठों से
चुन-चुन फूल डलिया भरी
गोधूलि-मधुर बेला,
बैलों के गलघंटियों से धुन-ताल मिलाती
सुन्दर महकती डलिया को
छज्जे के ऊपर लटका देती थी
प्रत्येक सवेरे सूरज दादा से पहले,
अँगड़ाई ले मैं जग जाती थी
मुख धो, डलिया लिए देहरियाँ
फूलों से सुगंधित कर आती थी
सबको मंगलकामनाएँ गुंजन-भरे
गीत मैं गाती-मुस्कुराती थी
दादी-दादा, माँ-पिता, चाची-चाचा,
ताई-ताऊ के पाँय लगती थी
सुन्दर फूलों सा खिलता-हँसता
बचपनः पकवान लिये- फूलदेई
मिलते थे पैसे, पकवान नन्हे-मुन्हों को:
पूरे चैत्र मास- फूलदेई
अठ्ठानवे प्रतिशत की दौड़
निगल गई बचपन के गीत-
फूलदेई बोझा-बस्ता-
कम्प्यूटर-स्टेटस सिंबल
झूठा निगल गया- फूलदेई
ना बड़े-बूढ़े, न चरण-वंदना, मशीनें- शेष,
घायल परिंदा है- फूलदेई
अगली पीढ़ी अंजान, हैरान,
परेशान है और शर्मिंदा है- फूलदेई
बासी संस्कृति को कह भूले,
अब गुड मॉर्निंग का पुलिंदा है- फूलदेई
फूल खोए बचपन खोया,
बस व्हाट्स एप्प में िज़न्दा है- फूलदेई
कितना अच्छा था, खेल-कूद-पढ़ाई साथ-साथ:
फूलों में हँसता- फूलदेई गाता-नाचता, आशीष, संस्कार,
मंदिर की घंटियों सा पवित्र- फूलदेई
मेरा बचपन- उसी छज्जे पर
लटकी टोकरी में, खोजो तो कोई- फूलदेई
हो सके ताजा कर दो फूल पानी छिड़ककर,
अब भी बासी नहीं- फूलदेई
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'''शब्दार्थ :'''
'''फूलदेई-''' चैत्र संक्रांति से एक माह तक मनाया जाने वाला उत्तराखंड का लोकपर्व
'''फूलारे-''' खेतों से फूल चुनकर देहलियों में फूल सजाने वाले बच्चे
बाँसा, बुराँस, किन्गोड़। फ्रयोंली- चैत्र मास में पहाड़ी खेतों के बीठों
पर उगने वाले प्राकृतिक औषधीय फूल
बीठा- पत्थरों से निर्मित पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेतों की दीवारें
छज्जा- पुराने पहाड़ी घरों में लकड़ी-पत्थर से बने विशेष शैली में
बैठने हेतु निर्मित लगभग एक-डेढ़ फीट चौड़ा स्थान
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