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निराला / नागार्जुन

No change in size, 21:36, 23 जुलाई 2019
क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कण
देह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ?
तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, वेसुध बेसुध गगन
भारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन !
</poem>
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