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"चौका / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
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सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर। 
  
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सारा शहर चुप है,
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धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।  
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मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।<br>
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खुद को ही सानती,
कि लो, इसे बेलो, पकाओ<br>
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खुद को ही गूँधती हुई बार-बार  
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में<br>
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ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पकाती हैं शहद।<br><br>
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धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।<br>
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खुद को ही सानती<br>
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खुद को ही गूंधती हुई बार-बार<br>
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ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।<br><br>
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15:48, 24 जनवरी 2020 के समय का अवतरण

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़।
भूचाल बेलते हैं घर।
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर,
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पृथ्वी–जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी-की-पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ,
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में
पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है,
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आख़िरी चूल्हे की राख भी,
और मैं
अपने ही वजूद की आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती,
खुद को ही गूँधती हुई बार-बार
ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।