भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मेरा मन / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा   
 
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा   
}} <poem>
+
}}  
 +
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKVID|v=iTiEtbK44rU}}
 +
<poem>
 
मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
 
मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
 
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
 
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
पंक्ति 14: पंक्ति 17:
 
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
 
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
 
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!
 
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!
 
 
 
</poem>
 
</poem>

22:22, 28 मई 2020 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
वह हरसिंगार के फूलों सा सुकुमार सहज कुम्हला जाता!

फूला न समाता खुश होकर, या घर भर देता रो-रोकर,
या तो कहता, 'दुनिया मेरी, या 'जग से मेरा क्या नाता!
मेरे मन की यह दुर्बलता, सामान्य नहीं निज को गिनता,
वह अहंकार से उपजा है, इसलिए सदा रोता-गाता!

मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!