लेखक: [[भवानीप्रसाद मिश्र]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र]]}}{{KKCatKavita}}{{KKVID|v=2rP_ELUe-ww}}<poem>तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमकोतुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमेमैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैंमैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँमैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।
तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमकोकभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,<br>फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको<br>कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता हैतुम चौंक नहीं पड़नाजो चलता है, वह शायद है मेंढक हो, यदि धीमे धीमे<br>मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।<br><br>वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।
कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैंमैं सन्नाटा हूँ,<br>निस्तब्ध बताते हैंफिर भी बोल रहा हूँ, कुछ चुप रहते हैं<br>मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहींशान्त बहुत हूँ, फिर क्या भी डोल रहा हूँ<br>ये सर सर ये खड़ खड़ सब मेरी हैहै यह रहस्य मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।<br><br>इसको खोल रहा हूँ।
कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता हैमैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,<br>कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता जहाँ घास उगा रहता है<br>ऊना-ऊनाजो चलता हैऔर झाड़ कुछ इमली के, वह शायद है मेंढक हो,<br>पीपल केवह जुगनू अंधकार जिनसे होता है, जो तुमको छल जाता है।<br><br>दूना।
मैं सन्नाटा हूँतुम देख रहे हो मुझको, फिर भी बोल रहा जहाँ खड़ा हूँ,<br>मैं शान्त बहुत हूँतुम देख रहे हो मुझको, फिर भी डोल रहा जहाँ पड़ा हूँ<br>यह सर सर यह खड़ खड़ सब मेरी है<br>मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँहै यह रहस्य मैं इसको खोल रहा ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।<br><br>
मैं सूने में रहता हूँहाँ, ऐसा सूनायहाँ किले की दीवारों के ऊपर,<br>जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना<br>नीचे तलघर में या समतल पर या भू परऔर झाड़ कुछ इमली केजन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है, पीपल के<br>अंधकार जिनसे होता जो मुझे भयानक कर देती है दूना।<br><br>छू कर।
तुम देख रहे हो मुझकोडरो नहीं, जहाँ खड़ा हूँवैसे डर कहाँ नहीं है,<br>तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ<br>पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं हैमैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ<br>मैं बस एक बात है, वह केवल ऐसी ही जगहों में पलाहै,कुछ लोग यहाँ थे, बढ़ा हूँ।<br><br>अब वे यहाँ नहीं हैं।
हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपरबहुत दिन हुए एक थी रानी,<br>नीचे तलघर में या समतल इतिहास बताता नहीं उसकी कहानीवह किसी एक पागल परजान दिये थी, भू पर<br>कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,<br>जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।<br><br>थी उसकी केवल एक यही नादानी!
तुम डरो नहींयह घाट नदी का, डर वैसे कहाँ नहीं अब जो टूट गया है,<br>पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है<br>बस एक बात है, वह केवल ऐसी हैयहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,<br>कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।<br><br>बैठना उसका छूट गया है।
यहाँ बहुत दिन शाम हुए एक थी रानीखिड़की पर आती,<br>इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी<br>थी पागल के गीतों को वह किसी एक दुहरातीतब पागल पर जान दिये थीआता और बजाता बंसी,<br>थी रानी उसकी केवल एक यही नादानी!<br><br>बंसी पर छुप कर गाती।
किसी एक दिन राजा ने यह घाट नदी कादेखा, अब जो टूट गया है,<br>खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखायह घाट नदी काभरा क्रोध में आया और रानी से, अब जो फूट गया है<br>वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,<br>अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।<br><br>उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा-जोखा।
शाम हुए रानी खिड़की पर आती,<br>थी बोली पागल के गीतों को वह दुहराती<br>जरा बुला दो,तब मैं पागल आता और बजाता बंसीहूँ, राजा, तुम मुझे भुला दोमैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,<br>रानी उसकी बंसी पर छुप बजवा कर गाती।<br><br>मुझको जरा सुला दो।
किसी एक दिन वो राजा ने यह देखाथा हाँ, कोई खेल नहीं था,<br>खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा<br>ऐसे जवाब से उसका कोई मेल नहीं थायह भरा क्रोध में आया और रानी सेऐसे बोली थी,<br>जैसे इस उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।<br><br>बड़े किले में कोई जेल नहीं था।
रानी बोली पागल को जरा बुला दोतुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,<br>मैं रानी की कोमल देह यहीं झूली थीहाँ, पागल हूँकी भी यहीं, राजारानी की भी यहीं, तुम मुझे भुला दो<br>मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,<br>बंसी बजवा हँस कर मुझको जरा सुला दो।<br>बोला, रानी तू भूली थी।
वह किन्तु नहीं फिर राजा था हाँ, कोई खेल नहीं थाने सुख जाना,<br>ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं हर जगह गूँजता था<br>पागल का गानारानी ऐसे बोली थीबीच बीच में, राजा तुम भूले थे, जैसे उसके<br>इस बड़े किले में कोई जेल नहीं था।<br><br>रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।
तुम जहाँ खड़े होतब और बरस बीते, यहीं कभी सूली थीराजा भी बीते,<br>रानी की कोमल देह यहीं झूली थी<br>रह गये किले के कमरे रीते रीतेहाँतब मैं आया, पागल की भी यहींकुछ मेरे साथी आये, यहीं रानी की,<br>राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी।<br><br>अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।
किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,<br>हर जगह गूँजता था पागल का गाना<br>बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,<br>रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।<br><br> तब और बरस बीते, राजा भी बीते,<br>रह गये किले के कमरे कमरे रीते<br>तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,<br>अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।<br><br> पर कभी कभी जब वो पागल आ जाता है,<br>लाता है रानी को, या गा जाता है<br>तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर<br>अनजान एक अनजान सकता-सा छा जाता है।<br><br/poem>